SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यान की निष्पत्ति है सामायिक ।" यह मेरे समझ में नहीं आया था। सोचती थी सामायिक स्वयं ध्यान कैसे हो सकता है ? सामायिक में अनेक प्रयोगों के साथ प्रेक्षाध्यान का प्रयोग भी करती थी। इनका समन्वय इतना गहरा कैसा है ? यह चिंतन करती थी । जब मैंने प्रेक्षाध्यान, जीवनविज्ञान और योग में एम.ए. किया और एम. ए. के विद्यार्थियों को ध्यान पढ़ाती हूँ और प्रेक्षाध्यान करवाती हूँ तब समझ में आया कि ध्यान की प्रक्रिया और उद्देश्य वही है जो सामायिक के, अर्थात सामायिक में 'चित्तशुद्धि' करनी है । वह तो 'ध्यान' से होगी। 'ऊर्जा का उर्द्धवगमन' करना है वह तो 'अंतर्यात्रा' से करना होगा। प्रेक्षाध्यान का प्रथम सोपान 'कायोत्सर्ग सामायिक में उसका महत्त्व है। सामायिक में स्वयं को जानना है, अपने आपको पहचानना है और प्रेक्षाध्यान की शुरुआत उसी से करते हैं। आत्मा के द्वारा आत्मा को देखना, स्वयं ही स्वयं को देखना, अपने आप को देखना ही ध्यान है। ध्यान करते-करते जब हम चिंतन करते हैं तो यही भावना भाते हैं "स्वयं का सत्य स्वयं खोजें, सब के साथ मैत्री का भाव रखें।" कितना सही फरमाते हैं आचार्यश्री "ध्यान और सामायिक के बीच भेद रेखा खींचना बहुत कठिन है।' 'सत्य की खोज' सामायिक और ध्यान दोनों की आत्मा है। बातें छोटी भी हो परंतु उसे समझकर करनी चाहिए। जैसे- 'नमो-नमो' दो शब्द है। इसमें क्या अन्तर है ? प्राकृत में 'न' का 'ण' विकल्प है। दोनों के रूप मिलते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से दोनों के उच्चारण की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया होती है। 'ण' मुर्धन्य वर्ण है, उसके उच्चारण से जो घर्षण होता है वह मस्तिष्कीय प्राणविद्युत का संचार होता है। वह 'न' उच्चारण से नहीं होता। इस प्रकार मुझे पता चला सचमुच ध्यान के बिना सामायिक अर्थात् शरीर बिना आत्मा । 'न' और 'ण' में क्या अंतर है। इसलिए गुरुदेव तुलसी ने जो अभिनव सामायिक के प्रयोग प्रस्तुत किये हैं, वे सामायिक के अध्यात्मिक तत्वों को उजागर करते हैं। सामायिक पर जो साहित्य है, उसे पढ़कर और प्रयोग करके हम सामायिक की गहराई में उतरने का प्रयत्न कर सकते हैं। पढ़ेगा वही आगे बढ़ेगा। इसलिए घर बैठे पत्र द्वारा जैन विद्या में बी. ए., एम.ए. का अध्ययन करें। ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः ज्ञान के बिना दुःखमुक्ति नहीं नाणं पयासयरं ज्ञान ही प्रकाश देता है। - जैन धर्म 'जैन धर्म में विश्व धर्म बनने की क्षमता है।' काका कालेलकर ने कितनी सत्य बात कहीं थी। जैन धर्म में जन धर्म बनने की क्षमता है। सबसे महत्त्वपूर्ण जैन धर्म जाति, रंग के आधार पर मनुष्य को विभक्त नहीं करता. यह मानवतावादी धर्म है। 'एक्का मणुस्स जाई' मनुष्य जाति एक है, इस सिद्धांत में जैन धर्म का विश्वास है। जैन धर्म ने सार्वभौम सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। अनेकान्तवादी यह धर्म समन्वयवादी है। विश्वमैत्री और विश्वशांति के लिए अहिंसा और अपरिग्रह जैसे सिद्धान्त का विकास किया। इसमें स्वस्थ परिवार, समाज के निर्माण की क्षमता है। यह धर्म व्यापक, उदार और वैज्ञानिक दर्शन देने वाला है। सापेक्षता, समन्वय, सअस्तित्व के मौलिक सिद्धान्तों के कारण एक साथ सभी बातें जैन धर्म में मिलती हैं। अनेकान्त तो जैन दर्शन की मौलिक देन है। 'पुरुषार्थ प्रधान है जैन धर्म।' खानपान शुद्धि के साथ व्यसन मुक्त जीवन और इसके लिए 'संयम' सबसे महत्त्वपूर्ण है। आचारांग सूत्र में स्थान-स्थान पर 'पुरिसा परक्कमेज्जा' यानि, 'पुरुष! पराक्रम कर' यह प्रेरणा दी गई है। दर्शन के अनेक पक्ष होते हैं, जैसे तत्त्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा, प्रमाण मीमांसा, आचार मीमांसा आदि। जैन चिंतन में आचार का स्थान सर्वोपरि है। आचार में दर्शन की सार्थकता है। ज्ञान का सार आचार है। दर्शन की निष्पत्ति आचार है। जैन अंगों में 'सूत्रकतांग' दूसरा अंग है। यह आचारशास्त्र का प्रतिपादित ग्रंथ है। उसके प्रारंभ के वाक्य को पढ़ा और मैं सोचने लगी, 'अरे यह तो वही है, जो मैं चाहती थी।' 'बुज्झेज' इसका अर्थ 'जानो' यदि जानेंगे नहीं तो आचार कैसे करोगे ? धर्म व्यवहार में तब आयेगा जब उसे जानेंगे, समझेंगे। पुण्य क्या और पाप क्या ? यही मालूम नहीं। हिंसा कब होती है और अहिंसा किसे कहते हैं ? यह गहराई से नहीं जानेंगे तो उसका पालन कैसे होगा ? दृष्टि बदलेगी, तभी सृष्टि बदलेगी। इसलिए 'बुज्झेज' 'जानो' ।
SR No.009660
Book TitleBane Arham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlka Sankhla
PublisherDipchand Sankhla
Publication Year2010
Total Pages49
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy