SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण सूत्र है, इसे जीवन में उतारो।इसे समझने के लिए दश वैकल्पिक सूत्र (४-१०) में विस्तृत व्याख्या उपलब्ध हैं। इसका अध्ययन ही आचार शास्त्र है। सूत्रकृतांग का दूसरा शब्द 'तिउद्देजा'। यानी 'तोड़ो' यह महत्त्वपूर्ण है। ज्ञान लो, जानो और फिर तोड़ो, वैसा आचरण करो। केवल जानना अपूर्ण है, इसलिए आचरण का समन्वय सूत्र बुज्झेज + तिउट्टेजा।जैन दर्शन ने सापेक्ष दृष्टिकोण का विकास किया है। भेद और अभेद जानने वाला दृष्टिकोण, अनेकांत सर्वग्राही दृष्टिकोण। जहां कोई आग्रह नहीं, विग्रह नहीं, इसलिए वास्तविकता का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ज्ञान होता है। जिस व्यक्ति को केवल आत्मा का अनुभव हो चुका है, उस व्यक्ति द्वारा कथित जैन धर्म, परोक्ष ज्ञान के द्वारा कहा हुआ नहीं है। उस व्यक्ति द्वारा कहा गया है जिसने समग्र सत्य का साक्षात्कार किया है। जैन धर्म में बहुत गहराई और सजगता से चितंन किया गया है। जैन आचार्यों का मानना था कि जो साधक मुनि बनने का मनोबल न रखता हो, वह गृहस्थ में रहते हुए ऐसे माध्यम मार्ग का अनुसरण करें, जिससे वह जिनेन्द्र देव द्वारा प्ररुपित श्रावक धर्म को अंगीकार करता है। सभी प्रकार की हिंसा छोड़ने पर पारिवारिक दायित्वों का निर्वद्ध नहीं हो सकता। इसलिए श्रावक के लिए अलग आचार संहिता और साधू के लिए अलग आचार संहिता दी है। जैन चिंतन में आचार मीमांसा इतनी व्यापक है कि उसमें जहां एक ओर व्यक्ति प्रधान मोक्ष धर्म समाहित होता है, वहीं दूसरी ओर समष्टि प्रधान समाज धर्म भी समाहित हो जाता है। जैन धर्म अखंड है। वह यदि व्यक्ति के लिए हितकर है तो समाज के लिए कल्याणकारी होगा ही। जैन आचार मीमांसा की विशेषता यह है कि वह व्यवहारिक है। इसलिए उसमें क्रमिक विकास की बात बताई है। जैसे क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष आदि का परित्याग करें। इनको पूर्ण छोड़ना सभी के लिए संभव नहीं है। इसलिए श्रावक के लिए अणुव्रतों का मार्ग बताया गया है, जिसके द्वारा श्रावक स्थूल पापों से बच सकता है। 'जैन धर्म' आत्मशुद्धि एवं आध्यात्मिक विकास का धर्म है। जैन धर्म सदा व्यापक रहा है, वह सब के लिए खुला है। संक्षेप में कहा जाय तो जैन धर्म के वैशिष्टय है, विचार में अनेकान्त, व्यवहार में साहिष्णुता और आचार में अहिंसा, संयम और तप। मंगल कामना 'अर्ह' अर्हत् का बीज मंत्र है। जिसकी सम्पूर्ण आंतरिक क्षमताएं जागृत हो जाती है और जिसमें दूसरों की अर्हता जगाने की सामर्थ्य हैं, वह होता है अर्हत्। अर्ह' अर्हतों का प्रतीक ह। आनंद केन्द्र पर 'अहं' का ध्यान करने से स्थायी आनंद का स्त्रोत प्रवाहित होने लगता है। अहं' के ध्यान या जप से अस्तित्त्व का बोध एवं इष्ट का स्मरण होता है। सहज आनन्द का अनुभव होता है। मानसिक तनाव दूर होता है। मनोकायिक रोगों का शमन होता है। संकल्प विकल्प समाप्त होते हैं। प्रेक्षा पुरस्कर्ता आचार्यश्री महाप्रज्ञ कहते हैं - 'अर्ह' के वलय से ऐसा रक्षा कवच निर्मित होता है जो प्रयोक्ता को बाहरी दुष्प्रभावों से बचाता है। जीवन विज्ञान प्रशिक्षिका श्रीमती अलका सांखला ने बनें अहम्' शीर्षक से एक लघु पुस्तिका लिख कर साधकों, उपासकों के लिए 'अहं' बनने की प्रक्रिया प्रस्तुत की है। यह लेखिका का स्तुत्य प्रयास है। अलका जी एक प्रबुद्ध महिला है। प्रखर वक्ता है, कवयित्री है, लेखिका है, योग प्रशिक्षिका है। वह अध्यात्म के रहस्यों को समझने की दिशा में सतत प्रयत्नशील रहती है। जो भी नये तथ्य उपलब्ध होते हैं, जिनको उदार हृदय से बांटने में भी वे अतिरिक्त आनंद और आत्मतोष का अनुभव करती है। __ प्रस्तुत पुस्तक में उन्होंने सामायिक साधना और मंत्राराधना को 'अहं' बनने का उत्तम उपाय बताया है और उसकी सहज, सरल, व्यवस्थित विधि भी प्रस्तुत की है। 'बनें अहम्' कृति को लेखिका ने अपनी माँ सा (सासू माँ) श्रीमती सुवा बाई सांखला को समर्पित की है, जिनके जीवन से अलका जी को जीवंत धर्म की झलक प्राप्त हुई, जो तत्त्वज्ञा श्राविका थी, देव, गुरू और धर्म के प्रति अनुराग जिनकी अस्थि मज्जा अनुरंजित थी, जिन्होंने अपने पुत्र-पुत्रियों को आध्यात्मिक संस्कारों के सांचे में ढाला, जिनके सात्विक विवेकपूरित व्यवहारों ने अलका जैसी पढ़ी-लिखी बहू को तेरापंथ धर्मसंघ के साथ जोड़ा। अंतिम समय में १७ दिन की संलेखना व अनशन की आराधना कर जिन्होंने जैन शासन की विशेष प्रभावना की उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का इससे उत्तम उपक्रम और क्या हो सकता है। प्रबुद्धचेता दीपचन्द सांखला का श्रम सहकार भी इस कृति में मुखर है। प्रस्तुत कृति देश-विदेश में रहने वाले धर्मानुरागी शिक्षित वर्ग के लिए भी उपयोगी बन सकेगी, ऐसा विश्वास है। २१ मार्च २०१० साध्वी कनकश्री कोलकाता (उत्तर हावड़ा)
SR No.009660
Book TitleBane Arham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlka Sankhla
PublisherDipchand Sankhla
Publication Year2010
Total Pages49
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy