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________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट ) ३२७ सकता है-कार्यकारणभावमूलक ( Cosmological ), सत्तामूलक (Ontological ), प्रयोजनमूलक (Teleological ) ! (१) कार्यकारणभावमूलक : न्याय-वैशेषिकोंका ईश्वरकी सिद्धिमें यह सुप्रसिद्ध प्रमाण है। नैयायिकोंका कहना है : 'जितने भो कार्य होते हैं, वे सब किसी बुद्धिमान कर्ताके बनाये हुए देखे जाते हैं। इसलिये पृथिवी. पर्वत आदि किसी कर्ताके बनाये हुए हैं, क्योंकि ये कार्य है। जो जो कार्य होते हैं, वे किसी कर्ताकी अपेक्षा रखते है जैसे घट । पृथिवी, पर्वत आदि भी कार्य हैं, इसलिये ये भी किसी कर्ताके बनाये हुए है । यह कर्ता ईश्वर ही है।'' शंका-हम जो घट आदि साधारण कार्योंको देखते हैं, उनका कोई कर्ता अवश्य है परन्तु पृथिवी, पर्वत आदि असाधारण कार्योंके कर्ताका अनुमान नहीं किया जा सकता। अतएव 'जो कार्य होते है, वे किसी कारणको अपेक्षा रखते हैं' यह अनुमान ठीक नहीं है। समाधानहमने उक्त अनुमान में सामान्य रूपसे व्याप्तिका ग्रहण किया है। जिस प्रकार रसोईघर में धूम और अग्निकी व्याप्तिका ग्रहण होनेपर उस व्याप्तिसे पर्वत आदिमें भी धूम और अग्निको व्याप्तिका ग्रहण किया जा सकता है, उसी तरह घट आदि कार्य और कुम्हार आदि कर्ताका संबंध देखकर पृथिवी, पर्वत आदि सम्पूर्ण कार्योंके कर्ताका अनुमान किया जाता है। उक्त अनुमानमें घट केवल दृष्टांतमात्र है। दृष्टांतके सम्पूर्ण धर्म दाष्टीतिक में नहीं आ सकते। इसलिये जैसे छोटेसे छोटे कार्यका कोई कर्ता है, उसी तरह बडेसे बड़े पृथिवी आदि कार्योका कर्ता ईश्वर है। शंका-अंकुर आदिके कार्य होनेपर भी उनका कोई कर्ता नहीं देखा जाता, इसलिये उक्त अनुमान बाधित है। समाधान-अंकुर आदि कार्य हैं, इसलिये उनका कर्ता भी ईश्वर ही है। ईश्वर अदृश्य है, अतएव हम उसे अंकुर आदिको उत्पन्न करता हुआ नहीं देख सकते । (२) सत्तामूलक : पश्चिमके एन्सेल्म ( Anselm ) और दकात ( Descarte ) आदि विद्वान ईश्वरके अस्तित्वमें दूसरा प्रमाण यह देते हैं कि यदि ईश्वरकी सत्ता न होती तो हमारे हृदयमें ईश्वरके अस्तित्वकी भावना नहीं उपजती। जिस प्रकार त्रिभुजको कल्पनाके लिये यह मानना आवश्यक है कि त्रिभुजके तीन कोण मिलकर दो समकोणके बराबर होते हैं, उसी प्रकार ईश्वरकी कल्पनाके लिये ईश्वरका अस्तित्व मानना अनिवार्य है। (३) प्रयोजनमूलक: ईश्वरके सद्भावमें तीसरा प्रमाण है कि हमें सृष्टि में एक अद्भुत व्यवस्था दृष्टिगोचर होती है। यह सृष्टिकी व्यवस्था और उसका सामंजस्य केवल परमाणु आदिके संयोगके फल नहीं हो सकते । इसलिये अनुमान होता है कि कोई ऐसी शक्तिशाली महान् चेतनाशक्ति अवश्य है जिसने इस सृष्टिकी रचना की है। १. हम ( Hume ) आदि पश्चिमके विद्वानोंने इस तर्कका खण्डन किया है। इन लोगोंका कहना है कि जिस प्रकार हम सम्पूर्ण कार्योंके कारणका पता लगाते-लगाते आदिकारण ईश्वर तक पहुँचते हैं, उसी प्रकार ईश्वरके कारणका भी पता क्यों न लगाया जाय ? यदि हम ईश्वर रूप आदिकारणका पता लगाकर रुक जाते हैं, तो इससे मालूम होता है कि हम ईश्वरको केवल श्रद्धाके आधारपर मान लेना चाहते हैं। जैन, बौद्ध आदि अनीश्वरवादियों ने भी यह तर्क दिया है। काण्ट ( Kant ) आदि पाश्चिमात्य दार्शनिकोंने इस युक्तिका खण्डन किया है। इन लोगोंका कथन है कि यदि हम मनुष्य-हृदयमें ईश्वरको कल्पनाके आधारसे ईश्वरके अस्तित्वको स्वीकार करें तो "संसारमें जितने भिक्षुक है, वे मनमें अशफियोंकी कल्पना करके करोड़पति हो जायें।" काण्ट (Kant), स्पेंसर, (Spencer), प्रोफेसर टिण्डल ( Tyndall ), प्रोफेसर नाइट ( Knight) आदि विद्वानोंका कहना है कि हम ससीम ब्रह्माण्डको देखकर उससे असीम उपादान कारणका अनुमान नहीं कर सकते। इसलिये जब तक हम अन्य प्रमाणोंके द्वारा ईश्वरका निश्चय न कर लें, अथवा जब तक स्वयं ईश्वरके समान शक्तिशाली न बन जांय, तब तक ईश्वरके विषयमें हम अपना निर्णय नहीं दे
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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