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________________ ३२६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां है । इसी प्रकार अन्य उपनिषदोंमें तम, प्राण, आकाश, हिरण्यगर्भ, जल, वायु, अग्नि आदिसे सृष्टिका आरंभ स्वीकार किया गया है। भारतीय दर्शनमें चार्वाक, बौद्ध, जैन, मीमांसा, सांख्य और योग दर्शनकार ईश्वरको सृष्टिकर्ता स्वीकार नहीं करते। वेदान्त, न्याय और वैशेषिक दर्शनोंमें ईश्वरको सृष्टिका रचयिता माना गया है। ईश्वरके अस्तित्वमें प्रमाण ईश्वरवादियोंका मत है कि इस अचेतन सृष्टिका कोई सचेतन नियन्ता होना चाहिये । परमाणु और कर्मशक्ति से सृष्टिको रचना नहीं हो सकती क्योंकि परमाणु और कर्मशक्ति दोनों अचेतन हैं। इसलिये इस सष्टिका सचेतन नियन्ता सर्वव्यापी, करुणाशील और जीवोंके कर्मों के अनुसार सुख-दुःखका फल देनेवाला एक ईश्वर ही हो सकता है। ईश्वरके अस्तित्वमें दिये जानेवाले प्रमाणोंको तीन विभागोंमें विभक्त किया जा १. मुण्डक उ. १-७। २. देखिये रानड़े और बेल्वलकरकी Constructive Survey of the Upanisadie Philosophy, अ. २ । ३. सांख्यदर्शनके इतिहासको तीन प्रधान युगोंमें विभक्त किया जाता है-(१) मौलिक अर्थात् उपनिषद्, भगवद्गीता, महाभारत और पुराणोंका सांख्य ईश्वरवादी था। (२) दूसरे युगका अर्थात् महाभारतके अर्वाचीन भागमें, तथा सांख्यकारिका और बादरायणके सूत्रोंमें वणित सांख्य 'प्रकृतिवाद' के सिद्धांतसे प्रभावित होकर अनीश्वरवादी हो गया। (३) तीसरे युगका अर्थात् ईसाकी सोलहवीं शताब्दिका सांख्यदर्शन विज्ञानभिक्षुके अधिपतित्वमें फिरसे ईश्वरवादको ओर झुक गया। ४. योगको सेश्वर सांख्य भी कहा जाता है। इस मतमें ईश्वरको सृष्टिका कर्ता नहीं मानकर एक पुरुष विशेषको ईश्वर माना गया है। यह पुरुषविशेष सदा क्लेश, कर्म, कर्मोंका फल और वासनासे अस्पृष्ट रहता है। ५. वेदान्तके अनुसार, ईश्वर जगतका निमित्त और उपादान कारण है, इसलिये वेदान्तियोंका मत है कि ईश्वरने स्वयं अपने मेंसे ही जगतको बनाया है, जब कि न्याय-वैशेषिकोंके अनुसार सृष्टि में ईश्वर केवल निमित्त कारण है। इसके अतिरिक्त, वेदान्त मतमें अनुमानसे ईश्वरकी सिद्धि न मानकर जन्म, स्थिति और प्रलय तथा शास्त्रोंका कारण होनेसे ईश्वरको सिद्धि मानी गई है। गा. ( Garbe) आदि विद्वानोंके मतके अनुसार, न्यायसूत्र और न्यायभाष्यमें ईश्वरवादका प्रतिपादन नहीं किया गया है। यहाँ ईश्वरको केवल द्रष्टा, ज्ञाता सर्वज्ञ और सर्वशक्तिशाली कहा गया है, सृष्टिका कर्ता नहीं; परन्तु यह ठीक कहीं। क्योंकि न्यायभाष्यमें ईश्वरके पितृतुल्य होनेका स्पष्ट उल्लेख मिलता है-यथा पिताऽपत्यानां तथा पितृभूत ईश्वरो भूतानाम् ४-१-२१ । कुछ विद्वानोंका मत है कि वैशेषिकसूत्रोंमें ईश्वरके विषयका कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। यहां परमाणु और आत्माकी क्रिया अदृष्टके द्वारा प्रतिपादित की जाती है। इसलिये मौलिक वैशेषिक दर्शन अनीश्वरवादी था। अथैली ( Athalye ) आदि विद्वान इस मतका विरोध करते हैं। उनका कहना है कि वैशेषिक दर्शन कभी भी अनीश्वरवादी नहीं रहा। वैशेषिकसूत्रोंका ईश्वरके विषयमें मौन रहनेका यही कारण है कि वैशेषिक दर्शनका मुख्य ध्येय आत्मा और अनात्माको विशेषताओंको प्ररूपण करना रहा है। Tarka-Samgraha, पृ. १३६, ७–देखिये प्रोफेसर राधाक्रिश्ननकी Indian Philosophy, Vol. II, पृ. २२५ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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