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________________ ३१० श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां संवृति सत्यका बिना अवलम्बन लिये परमार्थका उपदेश नहीं किया जा सकता। इसलिए सम्पूर्ण धर्मोको निस्स्वभाव-शून्य-ही मानना चाहिये । क्योंकि शून्यतासे ही पदार्थों का होना संभव है। शंका-यदि सम्पूर्ण पदार्थ शून्य है, और न किसी पदार्थका उत्पाद होता है और न निरोध होता है,तो फिर चार आर्यसत्योंको, अच्छे और बुरे कर्मोंके फलको, बोधिसत्वकी प्रवृत्तिको और स्वयं वुद्धको भी शून्य और मायाके समान मिथ्या मानना चाहिये । समाधान-बुद्धका उपदेश परमार्थ और संवृति इन दो सत्योंके आधारसे ही होता है। जो इन दोनों सत्योंके भेदको नहीं समझता, वह वुद्धके उपदेशोंके ग्रहण करनेका अधिकारी नहीं है। बौद्ध दर्शनमें बाह्य और आध्यात्मिक भावोंका प्रतिपादन, इन्हीं दो सत्योंके आधारसे किया गया है। साधारण लोग विपर्यासके कारण संवृति सत्यसे स्कंध, धातु, आयतन आदिको तत्त्व रूपसे देखते हैं। परन्तु सम्यग्दर्शनके होनेपर तत्त्वज्ञ आर्य लोगोंको स्कंध आदि निस्स्वभाव प्रतीत होने लगते है । इसलिये 'क्या अनन्त है, क्या अन्त-अनन्त ( उभय ) है, क्या अनुभय (न अन्त और न अनन्त ) है, क्या अभिन्न है, क्या भिन्न है, क्या शाश्वत है, क्या अनित्य है, क्या नित्य-अनित्य है, और क्या अनुभय (न नित्य और न अनित्य ) है" ये प्रश्न बुद्धिमानोंके मनमें नहीं उठते । स्वयं निर्वाण भी भाव रूप है, या अभाव रूप, यह हम नहीं जान सकते । क्योंकि निर्वाण न उत्पन्न होता है, न निरुद्ध होता है, न वह नित्य है, और न अनित्य है । निर्वाणमें न कुछ नष्ट होता है, और न कुछ उत्पन्न होता है। जो निर्वाण है, वही संसार है और जो संसार है, वही निर्वाण है। इसलिये भाव, अभाव, उभय, अनुभय इन चार कोटियोंसे रहित प्रपंचोशमरूप निर्वाणको ही माध्यमिकोंने परमार्थ तत्त्व माना । है यद्यपि सर्व धर्मोके निस्स्वभाव होनेसे परमार्थ सत्य अनक्षर है, इसलिये तूष्णींभावको ही आर्योने परमार्थ सत्य कहा है, परन्तु फिर भी व्यवहार सत्य परमार्थ सत्यका उपायभूत है। जिस तरह संस्कृत धर्मोसे असंस्कृत निर्वाणकी प्राप्ति होती है, उसी तरह संवृति सत्यसे परमार्थ सत्यकी उपलब्धि होती है। वास्तवमें न प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंको प्रमाण कहा जा सकता है, और न वास्तवमें पदार्थोंको क्षणिक ही कह सकते हैं। किन्तु जिस तरह कोई पुरुष अपवित्र स्त्रीके शरीरमें पवित्र भावना रखता है, उसी तरह मूर्ख पुरुष मायारूप भावोंमें क्षणिक, अक्षणिक १. तस्मात् सकलविकल्पाभिलापविकलत्वादनारोपितमसांवृतमनभिलाप्यं परमार्थतत्त्वं कथमिव प्रतिपादयितुं शक्यते । तथापि भाजनश्रोतृजनानुग्रहार्थं (परिकल्पमुपादाय) संवृत्या निदर्शनोपदर्शनेन किंचिद भिधीयते । वोधिचयोवतार पंजिका, पृ. ३६३ । २. सर्व च युज्यते तस्य शून्यता यस्य युज्यते । सर्वं न युज्यते तस्य शून्यता यस्य न युज्यते ।। माध्यमिककारिका २४-१४ । ३. द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना । लोकसंवृतिसत्यं च सत्यं च परमार्थतः ॥ माध्यमिककारिका २४-८ । ४. माध्यमिककारिका, निर्वाणपरीक्षा। ५. अप्रहीणामसांप्राप्तमनुच्छिन्नमशाश्वतं । अनिरुद्धमनुत्पन्नमेतन्निर्वाणमिष्यते ॥ माध्यमिककारिका निर्वाणपरीक्षा। ६. निर्वाणस्य च या कोटिः कोटिः संसरणस्य च न तयोरन्तरं किंचित् सुसूक्ष्ममपि विद्यते ।। माध्यमिककारिका, निर्वाणपरीक्षा। ७. परमार्थो हि आर्याणां तूष्णीभावः । चन्द्रकीर्ति, माध्यमिकवृत्ति । उपायभूतं व्यवहारसत्यं उपेयभूतं परमार्थसत्यं । तयोविभागोऽवगतो न येन मिथ्याविकल्पः स कुमार्गजातः॥ चन्द्रकीति, मध्यमकावतार ७-८०।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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