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________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट ) ३०९ पदार्थोंका स्वभावको अपेक्षा उत्पन्न होना नहीं मान सकते। पदार्थ स्वभावसे भाव रूप नहीं है, इसलिये वे परभावकी अपेक्षा भी उत्पन्न नहीं होते, अन्यथा सूर्यसे भी अन्धकारकी उत्पत्ति माननी चाहिये । पदार्थ स्वभाव और परभावकी अपेक्षा उत्पन्न नहीं होते, इसलिये स्वभाव और परभाव दोनों ( उभय रूप ) से भी उनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । तथा भाव, अभाव और भावाभावसे पदार्थोकी उत्पत्ति न होनेसे अनुभय रूपसे भी पदार्थ उत्पन्न नहीं हो सकते। अतएव जिस प्रकार असत् मायागज सत् रूपसे प्रतीत होता है, जिस प्रकार अपारमार्थिक माया परमार्थ रूपसे ज्ञात होती है, उसी तरह सम्पूर्ण अतात्त्विक धर्म अविद्याके कारण तत्त्व रूपसे दृष्टिगोचर होते हैं । वास्तवमें न पदार्थ उत्पन्न होते हैं, न नष्ट होते हैं, न कहीं लाभ है, न हानि है, न सत्कार है, न पराभव है, न सुख है, न दुख है, न प्रिय है, न अप्रिय है, न कहीं तृष्णा है, न कोई जीवलोक है, न कोई मरनेवाला है, न कोई उत्पन्न होगा, न हुआ है, न कोई किसीका बन्धु है और न कोई मित्र है। जो पदार्थ हमें भाव अथवा अभाव रूप प्रतीत होते हैं, वे केवल संवृति अथवा लोकसत्यकी दृष्टिसे ही प्रतीत होते है। परमार्थ सत्यकी अपेक्षासे एक निर्वाण ही सत्य है, और बाकी सम्पूर्ण संस्कार असत्य हैं। यह परमार्थ सत्य बुद्धिके अगोचर है, पूर्ण विकल्पोंसे रहित है, अनभिलाप्य है, अनक्षर है, और अभिधेय-अभिधानसे रहित है। यद्यपि इस परमार्थ धर्मका उपदेश नहीं हो सकता, परन्तु जिस प्रकार किसी म्लेच्छको कोई बात समझाने के लिए म्लेच्छकी ही भाषाका उपयोग करना पड़ता है, उसी प्रकार संसारके प्राणियोंको निर्वाणका मार्ग प्रदर्शन करनेके लिये संवृति सत्यका उपयोग करना पड़ता है, क्योंकि १. यः प्रत्ययर्जायति स ह्यजातो न तस्य उत्पादु सभावतोऽस्ति । यः प्रत्ययाधीनु स शून्य उक्तो। यः शन्यतां जानति सोऽप्रमत्तः ॥ वोधिचर्यावतार पंजिका पृ. ३५५ । जैन दर्शनमें वस्तुको स्वभावसे अशून्य और परभावसे शून्य माना गया है-सर्वस्य वस्तुनः स्वरूपादिना अशून्यत्वात्पररूपादिना शून्यत्वात् । अमृतचन्द्र-पंचास्तिकाय ९४ टीका। परन्तु पंचाध्यायीकारने वस्तुको सर्वविकल्पातीत कहकर द्रव्याथिक नयकी अपेक्षासे स्वभावसे भी अस्तिरूप और परभावसे भी नास्तिरूप नहीं माना है द्रव्याथिकनयपक्षादस्ति न तत्त्वं स्वरूपतोऽपि ततः । न च नास्ति परस्वरूपात् सर्वविकल्पातिगं यतो वस्तु ।। पंचाध्यायी १-७५८ । सिद्धसेन दिवाकर भगवानको शून्यवादी कहकर स्तुति करते हैंत्वमेव परमास्तिकः परमशून्यवादी भवान् । त्वमुज्वलविनिर्णयोऽप्यवचनीयवादः पुनः ।। परस्परविरुद्धतत्त्वसमयश्च सुश्लिष्टवाक् । त्वमेव भगवन्नकंप्यसु (मु ) नयो यथा कस्तथा ।। द्वा. द्वात्रिंशिका ३-२१ । २. न सन्नासन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकं । बोधिचर्यावतार पंजिका, पृ. २५९ । ३. एवं शून्येषु धर्मेषु किं लब्धं किं हृतं भवेत् । सत्कृतः परिभूतो वा केन कः संभविष्यति । कुतः सुखं वा दुःखं वा किं प्रियम् वा किमप्रियम् । का तृष्णा कुत्र सा तृष्णा मृग्यमाणा स्वभावतः ।। विचारे जीवलोकः कः को नामात्र मरिष्यति । को भविष्यति को भूतः को बन्धुः कस्य कः सुहृत् ।। बोधिचर्यावतार ९-१५२,३,४ ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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