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________________ टीकाकार मल्लिषेण को शनिवार के दिन जिनप्रभसूरिकी सहायतासे मल्लिषेणने स्याद्वादमंजरीको समाप्त किया । मल्लिषेणसूरि अपने समयके एक प्रतिभाशाली विद्वान् थे । मल्लिषेण न्याय, व्याकरण और साहित्यके प्रकाण्ड पण्डित थे । इन्होंने जैनन्याय और जैन सिद्धांतोंके गंभीर अध्ययन करनेके साथ न्याय-वैशेषिक, सांख्य, पूर्वमीमांसा, वेदान्त और बौद्धदर्शन के मौलिक ग्रन्थोंका विशाल अध्ययन किया था । मल्लिषेणकी विषयवर्णन शैली सुस्पष्ट, प्रसाद गुण से युक्त और हृदयस्पर्शी है। न्याय और दर्शनशास्त्र के कठिन से कठिन विषयोंको सरल और हृदयग्राही भाषामें प्रस्तुत कर पाठकोंको मुग्ध करनेकी कला में मल्लिषेण कुशल थे । इसी - लिये स्याद्वादमंजरी-मल्लिषेणकी एक मात्र उपलब्धरचना — न्यायका ग्रन्थ कहे जानेकी अपेक्षा 'साहित्यका एक अंश' ( piece of literature ) कहा जाता है । यद्यपि रत्नप्रभसूरिको स्याद्वादरत्नावतारिका भी साहित्य के ढंगपर ही लिखी गई है, परन्तु रत्नावतारिकामें समासोंकी दोर्घता और अर्थकाठिन्य होनेके कारण उसमें भाषाकी जटिलता आ गई है । इसलिये एक ओर सम्मतितर्क, अष्टसहस्री, प्रमेयकमला मार्तण्ड आदि जैन न्यायके गहन वनमेंसे, और दूसरी ओर स्याद्वादरत्नाकर, स्याद्वादरत्नावतारिका जैसी विकट और घोर अटवीमेंसे निकलकर स्याद्वादमंजरीको विश्राम करनेका सर्वाङ्गसुन्दर आधुनिक पार्क कहा जा सकता है । यहाँ पर प्रत्येक दर्शनके महत्त्वपूर्ण सिद्धांतोंका संक्षेप में सरल और स्पष्ट भाषामें वर्णन किया गया है । उपाध्याय यशोविजयजीने स्याद्वादमंजरीपर स्याद्वादमंजूषा नामको वृत्ति लिखी है । स्याद्वादमंजरीका उल्लेख माघवाचार्यने सर्वदर्शनसंग्रह में किया है । ४ 19 १. जिनप्रभसूरि तीर्थकल्प, अजितशान्तिस्तव आदि ग्रन्थोंके कर्ता हैं । २. उदाहरण के लिये देखिए - इह हि लक्ष्यमाणाऽक्षोदीयोऽर्थाक्षणाक्षरक्षीरनिरन्तरे, तत इतो दृश्यमानस्याद्वादमहामुद्रामुद्रिता निद्रप्रमेयसहस्रो त्तुङ्गतंगत रंगभंगिसंगसौभाग्यभाजने, अतुल फलभरभ्राजिष्णुभूयिष्ठागमाऽभिरामातुच्छपरिच्छेदसन्दोहशाद्वलासन्न कानन निकुंजे, निरुपममनीषामहायानपात्र व्यापारपरायणपूरुषप्राप्यमाणाप्राप्त पूर्वरत्न विशेषे, क्वचन वचनारचनाऽनवद्यगद्य परम्पराप्रवालजालजटिले, क्वचन सुकुमारकान्तालोकनीयास्तोकश्लोकमौक्तिप्रकरकरम्बिते क्वचिदनेकान्तवादोपकल्पितानल्पविकल्पकल्लोलोल्लासितोद्दामदूषणाद्विविद्राव्यमाणाने कती थिकनक्रचक्रवाले, क्वचिदपगताशेषदोषानुमानाभिधानोद्वर्तमानासमान पाठीनपुच्छटाऽच्छोटनो च्छलदतुच्छशीकर श्लेषसं जायमानमार्तण्डमण्डल प्रचण्डन्छमत्कारे, क्वापि तीर्थिकग्रंथग्रन्थिसार्थ - समर्थकदर्थनोपस्थापितार्थानवस्थितप्रदीपायमानप्लवमान ज्वलन्मणिफणीन्द्रभोषणे, सहृदय सैद्धान्तिकतार्किक - स्याद्वादरत्नाकरे'''''''' वैयाकरणकविचक्रचक्रवर्तिसुबिहितसुगृहीतनामधेयास्मद्गुरुश्रीदेवसूरिभिविरचिते स्याद्वादरत्नावतारिका पृ. २ । ३. मोहनलाल दलीचंद देसाईने अपने 'जैनसाहित्यनो इतिहास' नामक पुस्तकके ६४५ पृष्ठपर उपाध्याय यशोविजयकी उपलब्ध अप्रकाशित कृतियोंमें इस वृत्तिका उल्लेख किया है । ४. यदवोचदाचार्यः स्याद्वादमंजर्याम् वस्तुतः उक्त तीन श्लोकोंमें पहले के दो श्लोक सिद्धसेन के न्यायावतारके, और अन्तिम श्लोक हेमचन्द्रकी अन्ययोगव्यवच्छेदिकाका है । अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम् । एकदेशविशिष्टोऽर्थः नयस्य विषयो मतः ॥ न्यायानामेकनिष्ठानां प्रवृत्तौ श्रुतवर्त्मनि । सम्पूर्णार्थविनिश्चायि स्याद्वस्तु श्रुतमुच्यते ॥ अन्योन्यपक्षप्रतिपक्षभावाद् यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः । नयानशेषानविशेषमिच्छन् न पक्षपाती समयस्तथार्हतः ॥ सर्वदर्शनसंग्रह, आर्हतदर्शन ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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