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________________ १२८ श्रीमद्रराजचन्द्रजनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १४ न च वाच्यम् आत्मन्यपौद्गलिकेऽपि कथं सामान्यविशेषात्मकत्वं निर्विवादमनुभूयत इति । यतः संसार्यात्मनः प्रतिप्रदेशमनन्तानन्ताकर्मपरमाणुभिः सह वह्नितापितघनकुट्टितनिर्विभागपिण्डीभूतसूचीकलापवल्लोलीभावमापन्नस्य कथञ्चित् पौद्गलिकत्वाभ्यनुज्ञानादिति । यद्यपि स्याद्वादिनां पौद्गलिकमपौद्गलिकं च सर्व वस्तु सामान्यविशेषात्मकं, तथाप्यपौद्गलिकेषु धर्माधर्माकाशकालेषु तदात्मत्वमर्वागहशां न तथाप्रतीतिविषयमायाति । पौद्गलिकेपु पुनस्तत् साध्यमानं तेषां सुश्रद्धानम् । इत्यप्रस्तुतमपि शब्दस्य पौद्गलिकत्वमत्र सामान्यविशेषात्मकत्वसाधनायोपन्यस्तमिति ।। __ अत्रापि नित्यशब्दवादिसंमतः शब्दैकत्वैकान्तः, अनित्यशब्दवाद्यभिमतः शब्दानेकत्वैकान्तश्च प्राग्दर्शितदिशा प्रतिक्षेप्यः। अथवा वाच्यस्य घटादेरर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्वे तद्वाचकस्य ध्वनेरपि तत्त्वम् । शब्दार्थयोः कथञ्चित् तादात्म्याभ्युपगमात् । यदाहुर्भद्रबाहुस्वामिपादाः "अभिहाणं अभिहेयाउ होइ भिण्णं अभिण्णं च । खुरअग्गिमोयगुच्चारणम्मि जम्हा उ वयणसवणाणं ॥१॥ तथा, आत्माके अपौद्गलिक न होनेपर भी उसका सामान्य-विशेष रूपत्व निर्विवाद रूपसे अनुभवमें नहीं आता-ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार अग्निमें तपाया हुआ सूइओंका समूह घनसे कूटा जानेपर अविभागी एक पिण्डरूप बन जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक प्रदेशको अपेक्षा, अनन्तानन्त कर्म परमाणओंके साथ संश्लिष्ट एकीभावको प्राप्त संसारी आत्माको कथंचित् पौद्गलिक स्वीकार किया गया है। यद्यपि स्याद्वादको माननेवालोंके मतमें पौद्गलिक और अपौद्गलिक सभी वस्तु सामान्य-विशेष रूप हैं, फिर भी अल्पज्ञानी धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन अपौद्गलिक पदार्थोंके सामान्य-विशेषत्वको नहीं समझ सकते; शब्द आदि पौद्गलिक पदार्थों में सामान्य-विशेषत्वको अच्छी तरह समझ सकते हैं। अतएव यहाँ शब्दका पौद्गलिक प्रस्तुत न होनेपर भी उसके सामान्य-विशेष रूप सिद्ध करनेके लिये पुद्गलको पर्याय बताया गया है। नित्य शब्दवादी मीमांसकोंके मतके अनुसार शब्द सर्वथा एक है, और अनित्य शब्दवादी बौद्धोंके अनुसार शब्द सर्वथा अनेक है-इन दोनों मतोंका उक्त पद्धतिसे खण्डन करना चाहिये । अथवा, वाच्य घटादिके सामान्य-विशेष रूप सिद्ध होनेपर, वाचक शब्दोंको भी सामान्य-विशेष मानना चाहिये। क्योंकि शब्द ( वाचक) और अर्थ (वाच्य) का कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध माना गया है। भद्रबाहु स्वामीने भी कहा है "वाचक वाच्यसे भिन्न भी है, और अभिन्न भो है। क्षुर (छुरा), अग्नि और मोदक शब्दोंका उच्चारण करते समय बोलनेवालोंके मुख और सुननेवालोंके कान 'क्षुर' से नहीं छिदते, 'अग्नि' से नहीं १-नायमेकान्तः अमूर्तिरेवात्मेति । कर्मबन्धपर्यायापेक्षया तदावेशात्स्यान्मतः । यद्येवं कर्मवन्धावेशादस्यैकत्वे सत्यविवेकः प्राप्नोति । नैष दोषः । बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादस्य नानात्वमवसीयते । उक्तं च बंध पडि एयत्तं लक्खणदो हवइ तस्स णाणत्तं । तम्हा अमुत्तिभावो णेयंतो होइ जीवस्स ॥ छाया-बन्धं प्रत्येकत्वे लक्षणतः भवति तस्य नानात्वं । तस्मात् अमूर्तिभावः अनेकान्तं भवति जीवस्य ॥ सर्वार्थसिद्धौ पृ. ८८
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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