SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ अन्य. यो. व्य. श्लोक ८] स्याद्वादमञ्जरी गुणानामत्यन्तोच्छेदो मोक्ष इति वचनात् । चशब्दः पूर्वोक्ताभ्युपगमद्वयसमुच्चये। ज्ञानं हि क्षणिकत्वादनित्यं, सुखं च सप्रक्षयतया सातिशयतया च न विशिष्यते संसारावस्थातः । इति तदुच्छेदे आत्मस्वरूपेणावस्थानं मोक्ष इति । प्रयोगश्चात्र-नवानामात्मविशेपगुणानां सन्तानः अत्यन्तमुच्छिद्यते, सन्तानत्वात्, यो यः सन्तानः स सोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, यथा प्रदीपसन्तानः । तथा चायम्, तस्मात्तदत्यन्तमुच्छिद्यते इति । तदुच्छेद एव महोदयः, न कृत्स्नकर्मक्षयलक्षण इति । "न हि वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" । इत्यादयोऽपि वेदान्तास्ताशीमेव मुक्तिमादिशन्ति । अत्र हि प्रियाप्रिये सुखदुःखे, ते चाशरीरं मुक्तं न स्पृशतः । अपि च "यावदात्मगुणाः सर्वे नोच्छिन्ना वासनादयः। तावदात्यन्तिकी दुःखव्यावृत्तिर्न विकल्प्यते ॥ १॥ धर्माधर्मनिमित्तो हि सम्भवः सुखदुःखयोः। मूलभूतौ च तावेव स्तम्भौ संसारसद्मनः ।।२।। तदुच्छेदे च तत्कार्यशरीराद्यनुपप्लवात् । नात्मनः सुखदुःखे स्त इत्यसौ मुक्त उच्यते ।। ३ ।। इच्छाद्वेपप्रयत्नादि भोगायतनवन्धनम् । उच्छिन्नभोगायतनो नात्मा तैरपि युज्यते ॥ ४ ॥ तदेवं धिपणादीनां नवानामपि मूलतः। गुणानामात्मनो ध्वंसः सोऽपवर्गः प्रतिष्ठितः॥५॥ ननु तस्यामवस्थायां कीहगात्मावशिष्यते । स्वरूपैकप्रतिष्ठानः परित्यक्तोऽखिलैगुणः ॥ ६॥ है। ज्ञान क्षणिक है, इसलिये वह अनित्य है, और सुखमें हानि, वृद्धि होती रहती है, इसलिये सुख संसारको अवस्थासे भिन्न नहीं है । अतएव जिस समय अनित्य ज्ञान और अनित्य सुखका उच्छेद हो जाता है, उस समय आत्मा अपने स्वरूपमें स्थित होता है, वही मोक्ष है। अनुमान प्रयोगसे यह सिद्ध है-'मोक्षमें बुद्धि आदि आत्माके नौ विशेष गुणोंका सर्वथा नाश हो जाता है, क्योंकि वुद्धि आदि सन्तान हैं । ( अर्थात् आत्माके नित्य स्वभाव नहीं हैं ) । जो जो सन्तान होते हैं, उनका सर्वथा नाश होता है, जैसे प्रदीपकी सन्तान । वुद्धि आदि विशेष गुण भी सन्तान हैं, इसलिए उनका भी नाश होता है। बुद्धि आदि गुणोंका अत्यन्त नाश ही मोक्ष है, सम्पूर्ण कर्मोका क्षय होना नहीं।' वेदान्तियोंने भी इसी प्रकारका मोक्ष माना है। उनका कथन है"शरीरधारियोंके सुख-दुखका नाश नहीं होता, तथा अशरीरीको सुख-दुख स्पर्श नहीं करते ।" तथा "जब तक वासना आदि आत्माके सम्पूर्ण गुण नष्ट नहीं होते तब तक दुःखकी अत्यन्त व्यावृत्ति नहीं होती ॥१॥ सुख-दुःख धर्म और अधर्मसे ही सम्भव है, इसलिये धर्म-अधर्म ही संसारके मूल भूत स्तम्भ हैं ॥ २॥ धर्म और अधर्मके नाश हो जानेपर धर्म-अधर्मके कार्य शरीर आदिका नाश हो जाता है। उस समय सुख-दुःख भी नष्ट हो जाते हैं । यही मुक्तावस्था है ॥ ३ ॥ ___इच्छा, द्वेष, प्रयल आदि शरीरके कारण है, अतएव शरीरके उच्छेद होनेपर आत्मा इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदिसे भी सम्बद्ध नहीं होती॥ ४ ॥ इसलिये बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार-आत्माके इन नौ गुणोंका जड़मूलसे नष्ट हो जाना ही मोक्ष है ॥ ५ ॥ १. न हि वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति अशरीरं वा वसन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः ॥ इति छान्दोग्य० उ०८-१२।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy