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________________ ५२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां इति । ततः स्थितमेतत्सतामपि स्यात् कचिदेव सत्तेति ॥ तथा, चैतन्यमित्यादि । चैतन्यं - ज्ञानम्, आत्मनः - क्षेत्रज्ञाद्, अन्यद् - अत्यन्तव्यतिरिक्तम्, असमासकरणादत्यन्तमिति लभ्यते । अत्यन्तभेदे सति कथमात्मनः सम्बन्धि ज्ञानमिति व्यपदेशः, इति पराशङ्कापरिहारार्थ औपाधिकमिति विशेषणद्वारेण हेत्वभिधानम् । उपाधेरागत मौपाधिकम् - समवायसम्बन्धलक्षणेनोपाधिना आत्मनि समवेतम्, आत्मनः स्वयं जडरूपत्वात् समवायसम्बन्धोपढौकितमिति यावत् । यद्यात्मनो ज्ञानादव्यतिरिक्तत्वमिष्यते, तदा दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावाद् बुद्ध्यादीनां नवानामात्मविशेषगुणानामुच्छेदावसर आत्मनोऽप्युच्छेदः स्यात्, तदव्यतिरिक्तत्वात् । अतो भिन्नमेवात्मनो ज्ञानं यौक्तिकमिति ॥ [ अन्य. यो. व्यः श्लोक ८ तथा न संविदित्यादि । मुक्ति:- मोक्षः, न संविदानन्दमयी- न ज्ञानसुखस्वरूपा । संविद्-ज्ञानं, आनन्दः - सौख्यम्, ततो द्वन्द्वः, संविदानन्दौ प्रकृतौ यस्यां सा संविदानन्दमयी । एतादृशी न भवति बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काररूपाणां नवानामात्मनो वैशेषिक रहता, क्योंकि आकाश एक व्यक्ति रूप है । (२) घटत्व और कलशत्व में भी सामान्य नहीं रहता, क्योंकि घटत्व और कलशत्व दोनों एक ही पदार्थ में रहते हैं ( तुल्यत्व ) । ( ३ ) भूतत्व और मूर्तत्वमें भी सामान्य नहीं रहता, क्योंकि इसमें संकर दोष आता है । अर्थात् भूतत्व केवल आकाशमें और मूर्तत्व केवल मनमें रहता है; लेकिन पृथिवी, अप्, तेज और वायुमें भूतत्व और मूर्तत्व दोनों रहते हैं, इसलिए संकर दोष आनेसे भूतत्व और मूर्तत्वमें भी सामान्य नहीं रहता । ( ४ ) अनवस्था दोष आनेसे सामान्य में भी सामान्य नहीं रहता । (५) विशेष में भी सामान्य नहीं है, क्योंकि विशेषमें सामान्य माननेसे विशेषके स्वरूपकी हानि होती है | (६) समवायमें भी सामान्य नहीं रहता, क्योंकि समवाय एक है, समवायमें समवायत्वका सम्बन्ध करनेवाला दूसरा समवाय नहीं है | ) अतएव सिद्ध है कि सत् पदार्थोंमें भी सबमें सत्ता नहीं रहती । (२) ज्ञान आत्मासे अत्यन्त भिन्न है । समास न करनेसे 'अत्यन्त' अर्थ प्राप्त होता है । 'ज्ञान के आत्मासे सर्वथा भिन्न होनेपर, ज्ञान और आत्माका सम्बन्ध कैसे रहता है ?' जैनों की इस शंकाका परिहार करनेके लिए ‘औपधिक’ विशेषण- द्वारा हेतुका प्रतिपादन किया गया है । जो उपधिसे प्राप्त होता है, वह औपधिक है । समवाय सम्बन्ध रूप उपधि के कारण आत्मामें जो सम्बन्धको प्राप्त होता है वह औपधिक है; अर्थात् ज्ञान आत्मासे सर्वथा भिन्न होनेपर भी समवाय सम्बन्धसे आत्मासे सम्बद्ध है । ज्ञान आत्माका गुण नहीं है, वह उससे सर्वथा भिन्न है । आत्मा स्वयं जड़ है, इसलिए ज्ञान आत्मामें समवाय सम्बन्धसे रहता है । यदि आत्मा और ज्ञानको एक ही माना जाय, तो दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञानके नाश होनेपर आत्मा के विशेषगुण बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार का उच्छेद होनेसे आत्माका भी अभाव हो जाना चाहिए, क्योंकि जैनमतमें आत्मा इन गुणोंसे भिन्न नहीं है । अतएव आत्मा और ज्ञानका भिन्न मानना ही युक्तियुक्त है । ( ३ ) मोक्ष ज्ञान और आनन्द रूप नहीं है, क्योंकि आत्माके गुण बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार - आत्माके इन नौ विशेष गुणोंका अत्यंत उच्छेद हो जाना ही मुक्ति है, ऐसा कहा आकाशे भूतत्वस्यैव मनसि च मूर्तत्वस्यैव सद्भावेऽपि पृथिव्यादिचतुष्टय उभयोः सद्भावात् संकरप्रसंग: । (४) जातेरपि जात्यन्तरांगीकारेऽनवस्थाप्रसंग: । (५) अन्त्यविशेषता न जाति: । तदंगीकारे तत्स्वरूपव्यावृत्तिहानिः स्यात् । (६) समवायत्वं न जातिः । सम्बन्धाभावात् । इत्येते जातिबाधकाः ॥ 1 १. तत्त्वज्ञानान्मिथ्याज्ञानापाये रागद्वेषमोहाख्या दोषा अपयान्ति, दोषापाये वाङ्मनःकायव्यापाररूपायाः शुभाशुभफलायाः प्रवृत्तेरपायः । प्रवृत्त्यपाये जन्मापायः । जन्मापाये एकविंशतिभेदस्य दुःखस्यापायः ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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