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________________ सम्पादकीय पृ० ७० पं० १ 'अनभिप्रेतस्य साध्यत्वेऽतिप्रसङ्गात्' (सभी प्रतियोंमें) पृ० १०८ पं० ७ 'अदृष्टान्तवचनं तु' अमुद्रित प्रतियों के छूटे हुए पाठ पारा प्र० प० १४ 'अनिश्चितप्रामाण्याप्रामाण्यप्रत्ययगोचरत्वं विकल्पप्रसिद्धत्वं । तद्द्वयविषयत्वं प्रमाणविकल्पप्रसिद्धत्वम् ।' प० प्रति प० ६ 'सहकृताञ्जातं रूपिद्रव्यमात्रविषयमवधिज्ञानं । मनःपर्ययज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमः ।।' स्थूल एवं सूक्ष्म अशुद्धियाँ तो बहुत हैं जो दूसरे संस्करणोंको प्रस्तुत संस्करणके साथ मिलाकर पढ़नेसे ज्ञात हो सकती हैं। हमने इन अशुद्वियोंको दूर करने तथा छूटे हुए पाठों को दूसरी ज्यादा शुद्ध प्रतियोंके आधार से संयोजित करनेका यथासाध्य पूरा यत्न किया है। फिर भी सम्भव है कि दृष्टिदोष या प्रमादजन्य कुछ अशुद्धियाँ अभी भी रही हो । संशोधनमें उपयुक्त प्रतियों का परिचय प्रस्तुत संस्करणमें हमने जिन मुद्रित और अमुद्रित प्रतियोंका उपयोग किया है उनका यहाँ क्रमशः परिचय दिया जाता है : प्रथम संस्करण-आजसे कोई ४६ वर्ष पूर्व सन् १८९६ में कलापा भरमापा निटवेने मुद्रित कराया था । यह संस्करण अब प्रायः अलभ्य है। इसकी एक प्रति मुख्तारसाहबके पुस्तकभण्डारमें सुरक्षित है। दूसरे मुद्रितोंकी अपेक्षा यह शुद्ध है। द्वितीय संस्करण-वीर निर्वाण सं. २४३६ में पं. खूबचन्दजी शास्त्री द्वारा सम्पादित और उनकी हिन्दीटीका सहित जैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालय द्वारा बम्बईमें प्रकट हुआ है । इसके मूल और टीका दोनोंमें स्खलन है। तृतीय संस्करण-बीर निर्वाण सं० २४४१, ई० सन् १९५५ में भारतीय जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था काशीकी सनातनी जैनग्रन्थमालाकी अोरसे प्रकाशित हुआ है। इसमें भी अशुद्धियाँ पाई जाती हैं।
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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