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________________ सम्पादकीय सम्पादन का विचार और प्रवृत्ति सन् १९३७की बात है। मैं उस समय वीरविद्यालय पपौरा (टीकमगढ़ C.I.) में अध्यापनकार्य में प्रवृत्त हुआ था। वहाँ मुझे न्यायदीपिका को अपनी दृष्टि से पढ़ानेका प्रथम अवसर मिला । जो छात्र उसे पढ़ चुके थे उन्होंने भी पुनः पढ़ी । यद्यपि मैं न्यायदीपिका की सरलता, विशदता आदि विशेषताओं से पहलेसे ही प्रभावित एवं आकृष्ट था। इसीसे मैंने एक बार उसके एक प्रधान विषय 'असाधारणधर्मवचन' लक्षण पर 'लक्षण का लक्षण' शीर्षक के साथ 'जैनदर्शन' में लेख लिखा था। पर पपौरा में उसका सूक्ष्मता से पठन-पाठनका विशेष अवसर मिलनेसे मेरी इच्छा उसे शद्ध और छात्रोपयोगी बनाने की ओर भी बढ़ी। पढ़ाते समय ऐसी सुन्दर कृतिमें अशुद्धियाँ बहुत खटकती थीं। मैंने उस समय उन्हें यथासम्भव दूर करनेका प्रयत्न किया । साथ में अपने विद्यार्थियोंके लिए न्यायदीपिका की एक 'प्रश्नोत्तरावली' भी तैयार की। जब मैं सन् १९४० के जुलाईमें वहाँ से ऋषभब्रह्मचर्याश्रम चौरासी मथुरा में आया और वहाँ दो वर्ष रहा उस समय भी मेरी न्यायदीपिका विषयक प्रवृत्ति कुछ चलती रही। यहाँ मुझे आश्रमके सरस्वती भवनमें एक लिखित प्रतिभी मिल गई जो मेरी प्रवृत्तिमें सहायक हुई । मैंने सोचा कि न्यायदीपिका का संशोधन तो अपेक्षित है ही, साथ में तर्कसंग्रह पर न्यायबोधिनी या तर्कदीपिका जैसी व्याख्या-संस्कृतका टिप्पण और हिन्दी अनुवाद भी कई दृष्टियोंसे अपेक्षित है। इस विचारके अनुसार उसका संस्कृत टिप्पण और अनुवाद लिखना प्रारम्भ किया और कुछ लिखा भी गया। किन्तु संशोधनमें सहायक अनेक प्रतियोंका होना आदि साधनाभावसे वह कार्य आगे नहीं बढ़ सका । और अरसे तक बन्द पड़ा रहा।
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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