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________________ प्राक्कथन जैनदर्शनमें शब्दजन्य अर्थज्ञानको आगम प्रमाण माननेके साथ-साथ उस शब्दको भी आगम प्रमाणमें संग्रहीत किया गया है और इस प्रकार जैनदर्शनमें आगम प्रमाणके दो भेद मान लिये गये हैं । एक स्वार्थप्रमाण और दूसरा परार्थप्रमाण । पूर्वोक्त सभी प्रमाण ज्ञानरूप होनेके कारण स्वार्थप्रमाणरूप ही हैं । परन्तु एक पागम प्रमाण ही ऐसा है जिसे स्वार्थप्रमाण और परार्थप्रमाण उभयरूप स्वीकार किया गया है। शब्दजन्य अर्थज्ञान ज्ञानरूप होनेके कारण स्वार्थप्रमाणरूप है । लेकिन शब्दमें चूंकि ज्ञानरूपताका अभाव है इसलिये वह परार्थप्रमाणरूप माना गया है । ____ यह परार्थप्रमाणरूप शब्द वाक्य और महावाक्यके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें से दो या दोसे अधिक पदोंके समूहको वाक्य कहते हैं और दो या दो से अधिक वाक्योंके समूहको महावाक्य कहते हैं, दो या दो से अधिक महावाक्योंके समूहको भी महावाक्यके ही अन्तर्गत समझना चाहिये । इससे यह सिद्ध होता है कि परार्थप्रमाण एक सखण्ड वस्तु है और वाक्य तथा महावाक्यरूप परार्थप्रमाणके जो खण्ड हैं उन्हें जैनदर्शनमें नयसंज्ञा प्रदान की गई है। इस प्रकार जैनदर्शनमें वस्तुस्वरूपके व्यवस्थापनमें प्रमाणकी तरह नयोंको भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। परार्थप्रमाण और उसके अंशभूत नयोंका लक्षण निम्न प्रकार समझना चाहिए _“वक्ताके उद्दिष्ट अर्थका पूर्णरूपेण प्रतिपादक वाक्य और महावाक्य प्रमाण कहा जाता है और वक्ताके उद्दिष्ट अर्थके अंशका प्रतिपादक पद, वाक्य और महावाक्यको नयसंज्ञा दी गयी है।" इस प्रकार ये दोनों परार्थप्रमाण और उसके अंशभूत नय वचनरूप हैं और चूंकि वस्तुनिष्ठ सत्व और असत्व, सामान्य और विशेष, नित्यत्व और अनित्यत्व, एकत्व और अनेकत्व, भिन्नत्व और अभिन्नत्व इत्यादि परस्पर विरोधी दो तत्त्व अथवा तद्विशिष्ट वस्तु ही इनका वाच्य है इसलिए इसके आधारपर जैन दर्शनका सप्तभंगीवाद कायम होता है। अर्थात्
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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