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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी सर्वज्ञ-वीतराग बनने के पश्चात् क्या उनको किसी ने प्रश्न नहीं किया होगा? उन्होंने बताया भी होगा न! किसी आगमग्रन्थ में पढ़ने को नहीं मिला वह चिन्तन... कहानी पढ़ने को मिली, परन्तु कहानी का हार्द नहीं मिला...| दूसरों के कटु शब्द तो अप्रिय लगते हैं, उपकारी महापुरुषों के कट् शब्द भी अप्रिय लगते हैं। उपकारी पुरुषों के प्रति भी रोष आ जाता है। कैसी निम्नस्तरीय आत्मदशा है मेरी? कटु वचन को 'परिषह' बताया गया है। तीर्थंकर भगवन्तों ने 'वचन-परिषह' समता के साथ सहन करने का उपदेश दिया है। राग-द्वेष किये बिना कटु शब्दों को सुनने की कला हस्तगत हो जाय, तो साधना सफल हो जाय । इतना जानने को मिला है कि मृगावतीजी को अपनी गलती महसूस हुई थी और उन्हें घोर पश्चात्ताप हुआ था। 'मेरी वजह से मेरी उपकारिणी गुरुणीजी को कितनी मानसिक व्यथा हुई...? मैं उनकी मानसिक अशांति में निमित्त बन गई... कैसी मैं अज्ञानी हूँ... कैसी मैं अभागिन हूँ...' पश्चात्ताप के बाद उनकी आत्मा समताभाव में लीन हो गई होगी...| धर्मध्यान में से 'शुक्लध्यान' में प्रविष्ट हो गई होगी... शुक्लध्यान की गुफा में केवलज्ञान का रत्नदीपक जगमगाता ही है। ____ मैं सच्चे दिल से चाहता हूँ कि अप्रिय और कटु शब्द सुनने पर भी रोष न हो! उपकारी महापुरुषों के उपालम्भ मैं बिना रोष किये सुन सकूँ... उपालम्भ देनेवालों के प्रति कभी दुर्भाव न हो... कभी रोष न हो...| 'आत्मभाव निर्मल हुए बिना, प्रशान्त हुए बिना यह स्थिति प्राप्त नहीं हो सकती...' - यह जानता हूँ। परन्तु आत्मभाव निर्मल कैसे बना रहे, प्रशान्त कैसे बना रहे? भिन्न-भिन्न निमित्त, भिन्न-भिन्न प्रसंग आत्मभाव की निर्मलता नष्ट करते रहते हैं, प्रशान्त भाव को ध्वस्त कर देते हैं। स्वप्नसृष्टि में भी मृगावतीजी आकर अपना चिन्तन बता जाय... तो मेरा काम हो जाय! For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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