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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी १५३ बनाना पड़ेगा। 'संसार' का एक-एक सुख भय से आक्रान्त है, इस सत्य को स्वीकार कर, मन को भवसुखों से नि:स्पृह करना पड़ेगा। ___ - मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं होनी चाहिए, ऐसी कोई बात नहीं होनी चाहिए कि जिसको छुपाना पड़े। मेरा जीवन खुली किताब जैसा होना चाहिए | जो चाहे वह मेरी जीवन-किताब पढ़ सके। ___- 'मुझे दूसरों को कुछ देना है, यह विचार भी नहीं चाहिए । 'मुझे दूसरों से कुछ पाना है, यह विचार भी नहीं चाहिए | संसार के साथ लेन-देन का व्यवहार केवल व्यवहार बना रहे! मन उस व्यवहार से मुक्त रहे! ___ - मुझे संसार के सभी जड़-चेतन पदार्थों को 'ज्ञेय' रूप में देखने होंगे। बिना राग-द्वेष देखने होंगे। बिना राग-द्वेष देखने की ज्ञानदृष्टि मुझे प्राप्त करनी होगी। मुझे केवल 'ज्ञाता' बनना होगा। - ज्ञाता बनने कि लिए 'ज्ञानदृष्टि' चाहिए । ज्ञानदृष्टि कहाँ से प्राप्त करूँ? शास्त्रों से? धर्मग्रन्थों से? शास्त्रों के अर्थघटन में तीव्र मतभेद प्रवर्तित हैं। उन्हीं धर्मग्रन्थों के माध्यम से व्यवहार को - द्वैत को पुष्ट किया जा रहा है। व्यवहार भी शुद्ध नहीं, अशुद्ध और अशुभ! केवल विधि-विधानों में और वादविवादों में शास्त्रवेत्ता उलझे हुए हैं। ___ - ज्ञानदष्टि प्रकट होती है, विशद्ध चारित्र में से । वह चारित्र चित्त में होना चाहिए। मेरे चित्त में चारित्र कहाँ है? मेरे देह पर चारित्र के उपकरण हैं, मेरे चित्त में असंयम की गंदगी भरी हुई है। असंयम में से ज्ञानदृष्टि नहीं प्रकट होती है, अज्ञान ही प्रकट होता है। - चित्त में चारित्र के फूल खिल जाएं... तब तो बेड़ा पार लग जाए! -- दृष्टि में ज्ञान के दीप जलते रहे... तो फिर और क्या चाहिए? निरन्तर प्रकाश की गंगा में स्नान किया करूँ। ___- निर्भय तभी बन सकता हूँ... बनना भी है... परन्तु निर्भय बनने की प्रक्रिया विकट है, शर्ते ज्यादा कठोर हैं। मैं तन-मन से निर्बल हूँ, इन शर्तों का पालन कैसे करूँ? - निर्भयता का मार्ग मेरे मन को पसंद आ गया है, परन्तु उस मार्ग पर चलने की शक्ति कहाँ है मन के पास? तो क्या दूसरा कोई शक्य-सरल मार्ग है ही नहीं इस काल में? करुणावंत सर्वज्ञ भगवन्तों ने इस कलिकाल के जीवों के लिए निर्भयता प्राप्त करने का दूसरा कोई सरल मार्ग बताया तो होगा ही! For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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