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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra यही है जिंदगी - www.kobatirth.org ७५. मुझको निर्भय होना है मैं निर्भय कैसे बनूँ? जड़ और चेतन पदार्थों की अनंत अपेक्षाओं से हृदय भरा हुआ है.... अपेक्षाओं की माया - मरीचिका में मन सम्भ्रान्त बना है। - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • मन को द्वैत पसन्द है, अद्वैत को असंभव मान लिया है। व्यवहारमार्ग पर - मन दौड़ रहा है... स्वभाव ही द्वैतप्रेमी बन गया है। - १५२ कुछ छुपाने की वृत्ति है, कुछ देना है, कुछ पाना है... कर्तृत्व का अभिमान है...। मन इन बातों में ही उलझा हुआ रहता है...। मन का भटकाव निरंतर चालू है। मोह-सेना से घिरा हुआ हूँ । मोह-सेना को शत्रु सेना भी मानने को मन तैयार नहीं है...। फिर, उस सेना से लड़ने की तो बात ही कहाँ ? लड़ने के लिए जो ब्रह्मास्त्र चाहिए वह भी मेरे पास कहाँ है ? मुझे लड़ना ही कहाँ है ? - मैंने अपना स्वाभाविक आनंद खो दिया है...। मेरे आनंदवृक्ष पर असंख्य भय-सर्प लिपटे हुए हैं... मैं आँखें खोलकर देखता भी नहीं हूँ। मेरे आनंदवृक्ष को भय-सर्पों से मुक्त करने का विचार भी मुझे नहीं आता है... फिर, मैं क्यों ज्ञानदृष्टिरूप मयूरी का प्रवेश मेरे आत्मवन में करवाऊँ ? - मोह के प्रहार मुझे प्रहार ही नहीं लगते ... मुझे तो वे अलंकार लगते हैं । मोहवृत्ति और मोहजन्य प्रवृत्ति मुझे प्रिय हैं... फिर मैं क्यों आत्मज्ञान का कवच अपने बदन पर धारण करूँ ? आत्मज्ञान के अभाव में भयों का चक्रवात मुझे आकाश में घुमाता है... मैं व्याकुल हूँ, व्यथित हूँ, भयों से बचने के लिए परमात्मा को पुकारता हूँ...। - चित्त में चारित्र नहीं है, दृष्टि में ज्ञान नहीं है, हृदय में श्रद्धा नहीं है..... मैं कैसे भयमुक्त बन सकता हूँ? कैसे विवादरहित हो सकता हूँ? For Private And Personal Use Only यदि मुझे निर्भय होना है, आत्मानन्द की अनुभूति करनी है... मेरा निश्चल निर्णय है, तो मुझे अद्वैतगामी होना ही पड़ेगा । द्वैत का मोह छोड़ना ही पड़ेगा। मुझे अपने स्वभाव को ही अद्वैतप्रिय बनाना होगा । भयाक्रान्त भवसुखों की अपेक्षाओं का त्याग करना पड़ेगा । मन को निरपेक्ष
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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