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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी ११० ५५. पहले स्थिर बनिए उन्होंने कहा : अभी ऐसी स्थितप्रज्ञता नहीं चलेगी, अपनी जिम्मेदारियों को वहन करना चाहिए। उसने कहा : स्थितप्रज्ञता प्राप्त किये बिना, जिम्मेदारियाँ वहन करने की योग्यता प्राप्त होती है क्या? उन्होंने कहा : व्यवहारप्रधान जीवन में स्थितप्रज्ञता कैसे आ सकती है और कैसे टिक सकती है? उसने कहा : व्यवहारप्रधान जीवन कब तक निभाने का? जीवन के उत्तरार्ध में तो आत्मलक्षी जीवन बनना चाहिए न? क्या अंतिम श्वासोच्छवास तक व्यवहारों की उलझनें बनी रहनी चाहिए? दूसरी बात, स्थितप्रज्ञ बने बिना शुद्ध व्यवहार का पालन संभव है क्या? धार्मिक क्षेत्र में भी अशुद्ध व्यवहारों का प्रचलन, क्या स्थितप्रज्ञ नेतृत्व के अभाव का परिणाम नहीं है? अनेक अच्छीबुरी आकांक्षाओं को लेकर, परसापेक्ष जीवन जीने की रुढ़ परम्पराओं में, आत्मा और परमात्मा केवल नामशेष रह गये हैं - ऐसा नहीं लगता? प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ! मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञः तदोच्यते ।। __ मन की तमाम इच्छाओं से मुक्त बन, आत्मा से आत्मा में तुष्ट बनना स्थितप्रज्ञता है! संसार-व्यवहार में तो इच्छाओं की प्रचुरता रहेगी ही! स्वजीवन के सुखदुःखों की इच्छाएँ और परजीवन के सुख-दुःखों की इच्छाएँ बनी ही रहेगी। दुःख के विचारों में उद्वेग और सुख की कल्पनाओं में आनंद होता रहेगा! इससे राग, भय और क्रोध जीवन पर आधिपत्य जमाकर बने ही रहेंगे। उन्होंने कहा : धार्मिक क्षेत्र में भी कुछ हद तक राग-भय-क्रोध आदि आवश्यक तत्त्व माने गये हैं! परन्तु इन तत्त्वों को 'प्रशस्त' मानकर इस्तेमाल किये जाते हैं...! उसने कहा : जो मनुष्य स्थिर बुद्धिवाला नहीं होता है, जो स्थितप्रज्ञ नहीं होता है, क्या वैसा मनुष्य राग, द्वेष, क्रोध आदि को 'प्रशस्त' रूप दे सकता है? यानी हृदय से विरागी रहते हुए बाहर से राग की अभिव्यक्ति कर सकता For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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