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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०९ यही है जिंदगी वेदनाएँ सहनी पड़ेगी...' यह विचार नहीं आता, उसको विचार आता है - 'मेरा पाप लोग जान लेंगे तो मेरी बेइज्जती होगी, मेरा अपमान होगा... मैं किसी को मुँह दिखाने के योग्य नहीं रहूँगा...।' दुःखों के भय से पापों का पश्चात्ताप तो फिर भी लोग कर लेते हैं, परन्तु जिस पाप के पीछे कोई भय नहीं लगता है, जो पापाचरण कोई देखता नहीं है... फिर भी पाप का पश्चात्ताप हम करें तभी सच्चा पश्चात्ताप है। __आसपास के सभी लोग जो पाप कर रहे होते हैं, उसको तो 'पाप' मानना ही मुश्किल होता है। जिसको 'पाप' नहीं माने, उसका पश्चात्ताप कैसे? __भले मनुष्य पाप को पाप नहीं माने, भले पापों का पश्चात्ताप नहीं करें, परन्तु इससे वह पापमुक्त नहीं बन जाता! पापों का बोझ उसके हृदय में बढ़ता जाता है। धीरे-धीरे उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है। वह समझ नहीं पाता कि 'मेरा हृदय भारी-भारी क्यों रहता है?' यदि उसको पाप-पश्चात्ताप का मार्ग नहीं मिलता है, तो शीघ्र उसका हृदय बंद हो जाता है और आत्मा पापों का बोझ लिये, परलोकयात्री बन जाती है। ___ मौत से पूर्व हे परमात्मन! सहज भाव से मेरे पापों का पश्चात्ताप हो जाय... वैसी कृपा करें | पापों का प्रकाशन करने में रुकावट करने वाले तत्त्वों का नाश कर दो प्रभो! पापों का ऐसा पश्चात्ताप हो कि भविष्य में पापों का कोई आकर्षण ही नहीं रहे। पापेच्छा ही नष्ट हो जाय । हे वीतराग! तेरे अचिन्त्य अनुग्रह से मुझे पापेच्छाओं से मुक्ति पानी है। यदि उसका उपाय ‘पश्चात्ताप' का हो... तो वैसा पश्चात्ताप मैं करने को तत्पर हूँ... आपके ही पावनकारी चरणों में... For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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