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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - जब तू किसी मनुष्य को क्रोध-रोष करता हुआ देखे तब विचार करना - 'इसका क्रोध मोहनीय कर्म का उदय चल रहा है...।' - जब तू किसी मनुष्य को अभिमान से उन्मत्त बना हुआ देखे तब सोचना कि 'इस मनुष्य का अभी मान-मोहनीय कर्म का उदय चल रहा है।' - जब तू किसी मनुष्य को माया-कपट करता हुआ देखे तब सोचना कि 'इस बेचारे को अभी माया-मोहनीय कर्म का उदय सता रहा है।' - जब तू किसी मनुष्य का लोभ... आसक्ति में डूबा हुआ देखे तब विचार करना कि - 'यह मनुष्य अभी लोभ-मोहनीय कर्म के उदय से व्याकुल है।' इस प्रकार सोचने से दूसरे कषायपरवश जीवों के प्रति तेरे मन में दुर्भावना पैदा नहीं होगी। तेरे मन का समाधान होगा। अन्यथा दूसरों के प्रति घोर दुर्भावनाएँ पैदा होती रहती है। - 'मेरी माँ बहुत क्रोध करती है... अच्छी नहीं है, 'मेरा भाई बहुत अभिमान करता है, अच्छा नहीं है...' मेरी बहन मायावी है... अच्छी नहीं है...' मेरे पिता लोभी हैं... कृपण हैं... अच्छे नहीं हैं...!' इस प्रकार सोचने से परिवार के प्रति तेरे हृदय में स्नेह... प्रेम... करुणा या वात्सल्य के भाव नहीं रहेंगे | मैत्री भावना नहीं रहेगी। तू अनेक प्रकार के पाप कर्म बाँधेगा। विशेष तो मोहनीय कर्म बाँधेगा। मोहनीय कर्म के उदय से नया मोहनीय कर्म बँधता है! चेतन, एक महत्व की बात कहता हूँ। जब तू क्रोध करे, अभिमानी बने, मायाकपट करे अथवा लोभ हो जाय तब तुझे इस प्रकार नहीं सोचना है कि 'क्रोधमोहनीय कर्म के उदय से मुझे क्रोध आता है, मैं क्या करूँ?' तुझे इस प्रकार सोचना है कि - 'मैं क्रोध मोहनीय कर्म के उदय को विफल नहीं करता हूँ, आंतरिक मानसिक पुरुषार्थ से क्रोध का दमन या शमन नहीं करता हूँ, इसलिए मैं क्रोधी बनता हूँ। चेतन, मनुष्य यदि जागृत हो, 'मुझे क्रोध-मान-माया और लोभ के उदय को निष्फल बनाना है, उनको उदय में नहीं आने देना है...' ऐसा दृढ़ संकल्प हो तो वह कषाय विजेता बन सकता है! यानी पुरुषार्थ से वह कषायों का शमन कर सकता है। ८५ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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