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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस जन्म में 'लाभांतराय कर्म' का उदय नहीं होता है तो मनुष्य को अनीतिबेईमानी करने पर (पुण्य कर्म के उदय से) पैसे मिल जाते हैं, परंतु साथ-साथ 'लाभांतराय कर्म' भी बंध जाता है। जब वह कर्म उदय में आएगा, अपना प्रभाव बताएगा.. तब ग़रीबी गला घोंट डालेगी। लाख उपाय करने पर भी अर्थप्राप्ति नहीं होगी। अरे, भिखारी बन कर, द्वार-द्वार पर भटकने पर भी भिक्षा नहीं मिलेगी! चेतन, अल्प बुद्धिवाला मनुष्य अपने भविष्य के सुख-दुःख का विचार नहीं कर सकता है। इस जीवन का ही विचार करता है। वह सही विचार भी नहीं कर पाता है। अज्ञानता के अंधकार में भटक जाता है। धंधे में न्याय-नीति और ईमानदारी से व्यवहार करनेवाला मनुष्य यदि उसका पूर्वजन्म में उपार्जित 'लाभांतराय कर्म' उदय में होगा तो इस जनम में भले ही वह कम धनप्राप्ति करेगा, परंतु वह नया लाभांतराय कर्म नहीं बाँधेगा। परिणाम स्वरूप आनेवाले जन्म में वह कुबेर का भंडार प्राप्त कर सकेगा | अल्प प्रयत्न से विपुल संपत्ति प्राप्त कर सकेगा। उसके धनप्राप्ति के मार्ग में कोई विघ्न नहीं आएगा। ऐसे पुण्यशाली पुरुषों को मैं जानता हूँ... वे किसी भी बाज़ार में जाकर धंधा करते हैं... लाखों रुपये कमाते हैं! धन आता ही जाता है! वे शेर बाज़ार में कमाते हैं, सोना-चांदी में कमाते हैं, कपड़े में कमाते हैं और हल्दी में भी कमाते हैं! चूँकि अर्थप्राप्ति में रुकावटें करनेवाला 'लाभांतराय कर्म' उदय में नहीं है उनको । परंतु यदि वे लोग, विपुल धनराशि प्राप्ति होने पर, उस धन राशि का दुरुपयोग करते हैं, तो 'लाभांतराय' वगैरह पाप कर्म बाँध लेते हैं। उसका परिणाम गरीबी और बेकारी! निर्धनता और दरिद्रता।। चेतन, तेरे उस मित्र को कहना किः 'धनप्राप्ति के पुरुषार्थ में तुझे कामयाबी नहीं मिल रही है, उसका सही कारण 'लाभांतराय कर्म' है। दूसरे तो निमित्त कारण होते है।' 'लाभांतराय' को तोड़ने का धर्मपुरुषार्थ कर ले। धर्मपुरुषार्थ से ही वह कर्म टूटेगा। उसको जब अनुकूलता हो तब मेरे पास लाना | मैं उसको धर्मपुरुषार्थ के विषय में मार्गदर्शन दूंगा। जब तक वह मेरे पास नहीं आता है, उसको परमात्मा की भक्ति में जोड़ देना | धन कमाने के ग़लत रास्ते को छोड़ने के लिए प्रेरणा ४२ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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