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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - एक पिता अपने एक बेटे को सौ रुपये देता है। दूसरा लड़का पिता को बहकाता है : 'पिताजी, भैय्या को रुपये मत देना। वह जुआ खेलता है... होटल में जाता है... पैसे उड़ाता है...।' भाई के ऊपर ग़लत आरोप मढ़ता है, उसको पैसे प्राप्त नहीं होने देता है। लाभांतराय कर्म बंध जाता है। दूसरे भी पाप कर्म बांध लेता है। ____ - एक लड़का पढ़ने में होशियार है। अध्यापक उसको अच्छा ज्ञान देते हैं। दूसरे लड़के को ईर्ष्या होती है। वह अध्यापकों को समझाता है : 'वह लड़का ऐसे-ऐसे बुरे काम करता है... लड़का अच्छा नहीं है...।' अध्यापक उस लड़के को नहीं पढ़ाते हैं...। ज्ञानप्राप्ति में विघ्न डाला...। लाभांतराय कर्म बाँध लिया। - कुछ माता-पिता अपने पुत्र-पुत्री को दीक्षा नहीं लेने देते हैं। चारित्रधर्म का स्वीकार नहीं करने देते हैं। पुत्र-पुत्री सुयोग्य होने पर भी रोकते हैं। वे भी 'लाभांतराय कर्म' बाँधते हैं। चेतन, 'लाभांतराय कर्म' इस प्रकार बँधता है। एक दूसरी बात समझ लेना। जिस व्यक्ति के धनलाभ में, प्रिय की प्राप्ति में अंतराय आता है, विघ्न आता है, उसका भी 'लाभांतराय कर्म' ही कारण होता है। तात्पर्य यह है कि एक व्यक्ति के लाभांतराय का उदय, दूसरे व्यक्ति के लाभांतराय कर्म के बंधन में निमित्त बनता है! तेरा लाभांतराय कर्म उदय में आएगा तब दूसरा व्यक्ति तेरे निमित्त नया लाभांतराय कर्म बाँधेगा। तुझे मालूम हो जाय कि 'यह व्यक्ति हमेशा मुझे व्यापार में परेशान करता है, मुझे कमाने नहीं देता है। किसी न किसी प्रकार से मुझे पैसे कमाने नहीं देता है।' उस समय उस व्यक्ति पर द्वेष नहीं करना। सोचना कि : 'मेरा लाभांतराय कर्म उदय में आया है, इसलिए मुझे अर्थ लाभ नहीं हो रहा है। वह बेचारा तो निमित्त मात्र है। मेरे मार्ग में विघ्न डाल कर, वह स्वयं 'लाभांतराय कर्म' बाँध रहा है।' __ चेतन, 'लाभांतराय' बाँधने का एक प्रबल हेतु बताया गया है - व्यापार में अनीति, बेईमानी और अप्रमाणिकता। अब तू सोचना कि आज दुनिया में व्यापार की क्या स्थिति है? व्यापार में अनीति और बेईमानी कितनी व्यापक हो गई है? अनीति करनेवाले लाभांतराय कर्म बाँधते हैं, बेईमानी और मिलावट करनेवाले लाभांतराय कर्म बाँधते हैं। ४१ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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