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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र : प्रिय चेतन, धर्मलाभ, परमात्मा की परम कृपा से यहाँ कुशलता है। तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ। तेरा नया प्रश्न पढ़कर भी आनंदित हुआ। नया प्रश्नः 'कोई मनुष्य मरकर देवगति में उत्पन्न होता है, कोई मनुष्य मरकर पुनः मनुष्यगति में उत्पन्न होता है। कोई मरकर तिर्यंचयोनि में पैदा होता है तो कोई नरक में जाता है। ऐसा क्यों होता है? सभी मनुष्य देवगति में क्यों उत्पन्न नहीं होते? अथवा मनुष्यगति में क्यों नहीं जन्म लेते?' चेतन, जो मनुष्य धर्मपुरुषार्थ ज्यादा करता है और पाप कम करता है वह देवगति का आयुष्य कर्म बाँधता है, वह देवगति में उत्पन्न होता है। - जो मनुष्य जितना धर्मपुरुषार्थ करता है उतना पाप-पुरुषार्थ भी करता है, वह मनुष्यगति का आयुष्य कर्म बाँधता है, वह मनुष्यगति में जन्म पाता है। - जो मनुष्य धर्मपुरुषार्थ बहुत कम करता है, ज्यादा पाप-पुरुषार्थ ही करता रहता है, वह तिर्यंच गति का आयुष्य कर्म बाँधता है, मरकर तिर्यंचगति में जन्म पाता है। - जो मनुष्य जीवन में मात्र पाप ही करता रहता है, जिस का हृदय क्रूर होता है, वह नरक गति का आयुष्य बाँधता है और मरकर नरकगति में चला जाता है। अपने-अपने कर्मों के अनुसार मनुष्य को गति प्राप्त होती है। चेतन, जैसा नियम मनुष्य के लिए है वैसा नियम पशु-पक्षी के लिए भी है। परंतु देवों के लिए एवं नारकी के लिए अलग सा नियम है। - देव जो होते हैं, वे नरकगति का और देवगति का आयुष्य कर्म नहीं बाँधते हैं। वे मनुष्यगति का अथवा तिर्यंचगति का ही आयुष्य-कर्म बाँधते हैं। अपने-अपने आयुष्य-कर्म के अनुसार वे उस-उस गति में जन्म लेते हैं। १५४ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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