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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र : 00 प्रिय चेतन, धर्मलाभ, शुभभावसभर तेरा पत्र मिला! मन प्रसन्न हुआ। तूने लिखा किः ‘आप का पत्र पुनः पुनः पढ़ा। दूसरों के विचारों का अनुमान कर 'इसके ऐसे-ऐसे विचार हैं...' इस प्रकार निर्णय कर लेने की मेरी आदत है | उस आदत को छोड़ने का मैंने निर्णय कर लिया है। कौन क्या सोचता है, मुझे नहीं जानना है। मुझे मेरे विचारों का विशुद्धीकरण करना है। दूसरों के अच्छे व्यवहार का आदर करना है।' वगैरह पढ़कर संतोष हुआ। तेरा नया प्रश्नः 'गुरुदेव, मैंने विद्वानों के प्रवचनों में, वार्तालापों में सुना है कि हमारे सभी तीर्थंकर सर्वज्ञ होते हैं। दूसरे भी सर्वज्ञ बनते हैं। पुरुष सर्वज्ञ बन सकते हैं वैसे स्त्री भी सर्वज्ञ बन सकती है। तो हम क्यों सर्वज्ञ नहीं बन सकते? और, सर्वज्ञता क्या होती है एवं सर्वज्ञता से हमें क्या लाभ होता है? यह मेरी जिज्ञासा है।' चेतन, 'ज्ञानावरण कर्म' के पाँच प्रकार हैं। पाँचवा प्रकार है: केवल ज्ञानावरण । केवल ज्ञानावरण कर्म का क्षय होने पर केवलज्ञान आत्मा में प्रकट होता है। 'केवलज्ञान' को ही 'सर्वज्ञाता' कहते हैं। जो मनुष्य ज्ञानावरण कर्म का नाश करता है। वह केवलज्ञानी-सर्वज्ञ बनता है। स्त्री हो या पुरुष हो, सर्वज्ञ बन सकता है। तूने जो सुना कि सभी तीर्थंकर सर्वज्ञ होते हैं, सही बात है। सर्वज्ञता प्राप्त होने के बाद ही तीर्थंकर 'धर्मतीर्थ' का प्रवर्तन करते हैं। जब तक वे सर्वज्ञ नहीं बनते हैं तब तक वे मौन रहते हैं, अपनी साधना में निमग्न रहते हैं। जो-जो आत्मा सर्वज्ञ बनती है, पहले वह वीतराग' बनती है। पहले 'मोहनीय कर्म' का नाश होता है। बाद में ज्ञानावरण कर्म का नाश होता है। छद्मस्थ जीवों को जितने भी राग द्वेष होते हैं, जानने से और देखने से होते हैं। केवलज्ञान में तो सब कुछ दिखता है... सब कुछ जाना जाता है। यदि छद्मस्थ को केवलज्ञान हो जाय तो बड़ा अनर्थ हो जाय! परंतु ऐसा नहीं होता है। वीतराग को ही पूर्ण ज्ञान प्रकट होता है। वीतरागी आत्मा भले ही। १३० For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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