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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - मनुष्य को या तिर्यंचों को जब अवधिज्ञान प्रगट होता है तब उस ज्ञान का क्षेत्र मर्यादित होता है, बहुत ही छोटा होता है, बाद में जैसे-जैसे विचार (अध्यवसाय) विशुद्ध-विशुद्धतर होते जाते हैं वैसे-वैसे ज्ञान का क्षेत्र बढ़ता जाता है, यावत् चौदह राजलोक जितना परिपूर्ण क्षेत्र बन जाता है। यह ‘वर्धमान अवधिज्ञान' कहा जाता है। - शुद्ध-शुद्धतर अध्यवसायों में अवधिज्ञान प्रगट होता है, बढ़ता जाता है उसका क्षेत्र, परंतु तत्पश्चात् जैसे-जैसे अध्यवसाय की विशुद्धि कम होती है वैसे-वैसे ज्ञान का क्षेत्र घटता जाता है, इसको 'हीयमान अवधिज्ञान' कहते हैं। - जो अवधिज्ञान प्रगट होता है, बाद में चला जाता है, उसको 'प्रतिपाति अवधिज्ञान' कहते हैं। हाँ, अवधिज्ञान प्रगट होता है वैसे चला भी जा सकता है! एकदम बुझ जाता है, दीपक की तरह। - जो अवधिज्ञान प्रगट होने पर कभी नहीं जाता है, आत्मा में उस ज्ञान का प्रकाश निरंतर बना रहता है, उस ज्ञान को 'अप्रतिपाति अवधिज्ञान' कहते हैं। चेतन, उत्कृष्ट अवधिज्ञान देवों को नहीं होता है। मनुष्यों को ही होता है। वैसे सबसे सूक्ष्म अवधिज्ञान भी मनुष्य एवं तिर्यंचों को ही होता है। - अवधिज्ञान जिस प्रकार साधु-साध्वी को होता है वैसे गृहस्थ को भी हो सकता है। श्रमण भगवान महावीरस्वामी के अनन्य भक्त आनंद श्रावक को 'अवधिज्ञान' प्रगट हुआ था। वैसे दूसरे श्रावकों को भी होता था । वर्तमानकाल में, इस भरतक्षेत्र में प्रायः किसी को वह ज्ञान नहीं है | नहीं __ हो सकता, ऐसी बात नहीं है, हो सकता है, परंतु उस ज्ञान को प्रगट होने में जितनी आत्मविशुद्धि चाहिए, अध्यवसायों की विशुद्धि चाहिए, उतनी विशुद्धि कहाँ से लाना? चेतन, 'विशेषावश्यक भाष्य' नामके ग्रंथ में, 'अवधिज्ञानावरण' कर्म का क्षयोपशम करने का स्पष्ट उपाय बताया गया है: (१) अवेदी बनना, (२) अकषायी बनना। जैन परिभाषा में 'वेद' शब्द का प्रयोग जीवों की वैषयिक वासना के अर्थ में १२३ For Private And Personal Use Only
SR No.009640
Book TitleSamadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2004
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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