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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनम जनम तूं ही माँ! हो । अध्ययन करते-करते भी कभी बढ़िया तत्त्वचर्चा का मौका आ जाए तब तो तू बरबस याद आ ही जाता है। मन होता है... जाकर अमर को यह तत्त्वचर्चा सुनाऊँ... उसे कितना आनंद होगा?' 'तो फिर मेरी हवेली पर क्यों नहीं आती? अरे! माँ से मिलने के बहाने भी तो आ सकती है तू?' 'आ तो सकती हूँ... मैंने इरादा भी किया था... पर तेरी माँ की उपस्थिति में तेरे साथ बात करने में मुझे.... 'शरम आती है। यही कहना है न?' सुंदरी का चेहरा शरम से लाल-लाल होता चला गया। _ 'अमर...' पैरों से जमीन को कुरेदते हुए बोली, 'मुझे तेरे साथ ढेर सारी बातें करनी है...। साध्वीजी से जो मैंने सुनी है, वे सारी बातें तुझे बतानी है... और तुझसे भी मुझे ऐसी कई बातें सुननी भी है | जैनधर्म का, सर्वज्ञ शासन का दर्शन मुझे तो बहुत अच्छा लगता है... अमर, तुझे भी यह दर्शन भाता होगा?' 'सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा की बतायी हुई अनेकांत दृष्टि मुझे बहुत अच्छी लगी...।' 'मुझे कर्मवाद बहुत अच्छा लगा, अमर!' दोनों का वार्तालाप अधूरा रहा, चूंकि अन्य दर्शनार्थियों की आवाजाही चालू हो गयी थी। अमरकुमार सोपान उतर गया और सुरसुंदरी ने उपाश्रय में प्रवेश किया। आचार्य श्री को वंदना कर कुशलता पूछी और विनय पूर्वक खड़ी हो गई। 'क्यों सुरसुंदरी! साध्वजी अध्ययन कैसा करवाती हैं?' 'बहुत अच्छा, गुरुदेव । वह गुरुमाता तो कितनी करुणा एवं वत्सलता से अध्ययन करवाती हैं। मुझे तो काफ़ी आनंद मिलता है। दर्शन का ज्ञान भी कितना प्राप्त होता है।' 'तू पुण्यशालिनी है! तुझे माता तो गुरु मिली ही है, साध्वी भी ऐसे ही गुरु मिली!' 'आपकी कृपा का फल है, गुरुदेव!' 'वत्से! ऐसा ज्ञान प्राप्त करना कि चाहे जैसे प्रतिकूल संजोगों में भी तू स्वस्थ बनी रहे। तेरा संतुलन यथावत् रहे। तेरी समता-समाधि टिक सके। For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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