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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सभी का मिलन शाश्वत में ३३१ परमात्मा का स्तवन करती है...। परमात्मा के ध्यान ने लीन बनी रहती है.... कभी धनवती के साथ उपाश्रय में जाकर साध्वीजी का सत्संग करती है। कभी रतिसुंदरी के पास जाकर तत्त्वचर्चा करती है....। समय का प्रवाह बहता हीं जाता है। समय को कौन रोक सकता है ? अक्षयकुमार ने यौवन में प्रवेश कर दिया था । +++ अमर मुनीन्द्र और साध्वी सुरसुंदरी शुद्ध चित्त से संयम का पालन करते हैं, जिनाज्ञा का पालन करते हैं... गुरूदेव का विनय करते हैं | ज्ञान-ध्यान में रत रहते हैं... संयम योगों की आराधना में अप्रमत्त रहते हैं । समता की सरिता में निरंतर स्नान करते हैं... धैर्यरूप पिता और क्षमारूप माँ की छत्रछाया में रहते हैं। विरतिरूप जीवनसाथी के साथ परमसुख की अनुभूति करते हैं। आत्मस्वभाव के राजमहल में रहते हुए उन मुनि को, उन साध्वीजी को कमी किस बात की होगी ... ? संतोष के सिंहासन पर वे आसीन होते हैं! धर्मध्यान और शुक्लध्यान के चँवर ढुलते रहते हैं ! जिनाज्ञा का छत्र उनके सर पर शोभायमान हो रहा है। * कांस्यपात्र की भाँति वे निःस्नेह बन चुके हैं ! * गगन की भाँति वे निरालंबन बने हैं। * वायु की तरह वे अप्रतिबद्ध बन गये हैं। * शरद जल की तरह उनका हृदय शुद्ध-शुभ्र बन गया है। * कमल की भाँति वे निर्लेप और कोमल बन गये हैं । * कछुए की भाँति वे गुप्तेन्द्रिय बन चुके हैं। * भारंड पक्षी की भाँति वे अप्रमत्त हो गये हैं । * सिंह की भाँति दुर्धर्ष बन गये हैं । * सागर की तरह गंभीर और सूरज से तेजस्वी बन गये हैं । * चंद्र की भाँति शीतल और गंगा की तरह वे पवित्र बन गये हैं । नहीं है उन्हें किसी द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव का कोई प्रतिबन्ध ! नहीं है उन्हें किसी तरह का भय, हास्य, रति या अरति ! उनके लिए गाँव, नगर या जंगल एक-से | सुवर्ण और मिट्टी समान लगते हैं। चंदन और आग समान लगते हैं। मणि और तृण एक-से लगते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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