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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोर ने मचाया शोर २२६ कौमार्य के तेज से देदीप्यमान गुणमुंजरी के दिल के सरोवर में प्रीत का कमल खिलता ही जा रहा था। उसकी शतदल पंखुरियों में आंतरसखत्व की सुरभी महक रही थी। एक दिन उसने विमलयश से कहा : 'कुमार, क्या प्रेम यह मनुष्य के अस्तित्व की धुरी नहीं है? जीवन का सनातन सत्य नहीं है? अनंत की यात्रा के प्रति गति नहीं है? अचल, अमल, अविकल की यात्रा का श्रेष्ठ साधन नहीं है? __ और तब विमलयश को... उसके भीतर में रही हुई सुरसुंदरी को अमरकुमार के साथ का शादी से पूर्व का वार्तालाप याद आ गया । स्नेह के सुकुमार रोमांच को जाननेवाली उसकी देह उस स्मृति से थरथरा गयी! तब गुणमंजरी ने विमलयश की आंखों में आँखें डालते हुए कहा था : ___ 'विमल... चलो... अपन एक साथ जीने का वादा करें... संग रहने का संकल्प करें... स्वीकार है तुम्हें?' तब विमलयश की आँखें छलछला उठी थीं। ऐसी बातें मैंने भी अमर से कही थी! अमर ने मुझसे वादा किया था... वचन दिया था... पर!!! उसने दूर-सुदूर गगन में फैले हुए अंतहिन बादलों पर निगाह लगायी और कहा : मंजरी, देख आकाश में अष्टमी का चांद जैसे कि पूनम को पाने की आशा में जी रहा है... घूम रहा है...?' 'सही बात है तुम्हारी... उसकी आशा सफल होगी ही!' विमलयश को नंदीश्वर द्वीप पर सुने हुए महामुनि के वचन याद आ गये : 'तेरी आशा बेनातट नगर में फलेगी!' और उसने सोचा : क्या आशाएँ फलती हैं इस संसार में? फिर भी आशाओं का अवलंबन लिये बगैर हम कहाँ रहते हैं?' इतने में गुणमंजरी की घुघरू-सी आवाज उसके कानों में टकरायी : 'कुमार, दिल-देह और आत्मा से तुझे ही जीवन-साथी माना है... इतना याद रखना! For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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