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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजमहल में २१८ 'अरे कैसी पागल हूँ...मैं? अभी-अभी बस दो घटिका में ही तैयार कर देती हूँ भोजन । आज तो लापसी बनाऊँगी। तुम मंत्री जो बन गये हो।' 'और तू मंत्री की परिचारिका हो गयी न?' मालती रसोईघर में पहुँच गई। विमलयश ने कपड़े बदल लिये और पलंग में जा लेट गया। राजा... राज्यसभा और बेनातट के नगरजन उसकी स्मृतिपट पर उभरने लगे। उसने राजा के दिल में स्नेह का सागर उफनता पाया। राज्यसभा में कलाकारों की, विद्वानों की, पराक्रमियों की, कद्रदानी देखी। प्रजा में सरलता, गुणग्राहकता, और प्यासी आँखें देखी। साथ ही साथ गरीबी भी देखी...। उसका अंतरमन बोल उठा : 'पहले मैं प्रजा की गरीबी दूर करूँगा | इस नगर में एक भी आदमी बेघर नहीं रहना चाहिए। कोई भी नंगा और भूखा-प्यासा नहीं रहना चाहिए। एक राज्य अधिकारी के रूप मेरा पहला कर्तव्य यही होगा। चुंगी की तमाम पैदाइश मैं प्रजा की सुख-शांति एवं बेनातट की उन्नति के लिए खर्च करूँगा। उस धन में से एक पैसा भी मुझे अपने लिये नहीं चाहिए। भोजन तैयार हो गया था। मालती ने विमलयश को प्रेम से आग्रह कर-करके भोजन करवाया । भोजन के पश्चात विमलयश वहीं पर बैठा। मालती ने भी भोजन कर लिया। विमलयश ने मालती से कहा : 'मालती, महाराजा बहुत उदार हैं, नहीं?' 'हैं तो सही, पर तुम्हारी तुलना नहीं हो सकती।' 'तू तो बस जब देखो तब मेरा ही गुण गाने लगेगी | जा, तुझ से बात ही नहीं करनी है मुझे तो।' यों कहकर विमलयश खड़ा होकर अपने कमरे में चला आया। पीछे-पीछे ही मुँह में आँचल दबाकर हँसती हुई मालती आयी और बोली । 'मैं महल पर जाऊँ क्या?' 'क्यों?' 'वहाँ पर सारी सुविधा जमा दूं, सामान भी लगा दूँ।' 'अच्छा... और यह भी देखती आना कि अपने महल और राजमहल के बीच कितनी दूरी है?' For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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