SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदा, मेरे भैया! अलविदा, मेरी बहना! २०३ स्त्रियों से प्रेम से मिली। सुरसुंदरी ने एक घटिका पर्यंत जिनभक्ति के बारे में सबको बहुत कुछ बताया। सभी स्त्रियाँ हर्षविभोर हो उठीं। सुरसंगीत नगर में फिर से जल्दी आने की प्रार्थना करके सभी ने विदा ली। सुरसुंदरी रानियों के साथ अपने कमरे में आयी। रानियाँ सुरसुंदरी के लिए सुंदर वस्त्र, क़ीमती गहने... और कुछ दिव्य वस्तुएँ तैयार की। सब से छोटी रानी ने एक दिव्य पंखा सुरसुंदरी के हाथों में थमाते हुए कहा : 'यह एक दिव्य पंखा है... यदि बुखार से पीड़ित किसी व्यक्ति पर यह पंखा झलाया जाए तो उसका बुखार अवश्य उतर जाएगा। इस पंखे की यह विशेषता है। तुम्हें उपयोगी बनेगा। सुरसुंदरी उदास थी... चारों रानियाँ विदा देने की उमंग में थी। रत्नजटी का मन भी अस्वस्थ था। यह सुरसुंदरी विद्याधर दुनिया में किस तरह वापस आ सकेगी? पर क्यों मेरा मन इसे वापस बुलाना चाहता है? नहीं... नहीं... मुझे अब इससे दूर ही रहना चाहिए | इसका अद्भुत रूप कभी मेरे मन को चंचल बना देगा तो? यह पर -स्त्री है... अमरकुमार की ब्याहिता है... पतिव्रता महासती है।' रत्नजटी विचारों की आँधी में उलझने लगा। शाम को उसने खाना भी नहीं खाया । उसने क्या, किसी ने भी भोजन नहीं किया। रात को धर्मचर्चा भी नहीं हुई... चारों रानियाँ सुरसुंदरी के पास ही सो गयीं। __ कमरे में रत्नों के दीप मद्धिम-मद्धिम जल रहे थे... परंतु वहाँ पर सोई हुई सन्नारियों के दिल में विरह की वेदना से उत्पन्न अंधकार फैला हुआ था। सुबह हुई। प्राभातिक कार्यों से सब निपटे । सुरसुंदरी ने जिनमंदिर में जाकर परमात्मा के दर्शन-पूजन-स्तवन किये । सभी ने साथ बैठकर दुग्धपान किया। चारों रानियाँ सुरसुंदरी के चरणों में गिरी । सुरसुंदरी चारों से लिपट गयी। सभी के दिल में उफनती पीड़ा आँसू बनकर पिघलने लगी। 'फिर कभी पावन करना हमारे नगर को दीदी...।' रानियाँ फफकफफककर रो दीं। सुरसुंदरी महल के बाहर आयी। हज़ारों स्त्री-पुरूष अपने For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy