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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विदा, मेरे भैया! अलविदा, मेरी बहना! २०२ रत्नजटी ने स्वस्थ होकर वहाँ पर सुरसुंदरी को चारों विद्याएँ सिखला दी। सुरसुंदरीने कहा : 'तुम उत्तम पुरुष हो, मुझ पर तुम्हारे अनंत उपकार हैं। ये विद्याएँ देकर तुमने उन उपकरों को और प्रगाढ़ बना दिया है।' _ 'हम कल सवेरे यहाँ से बेनातट नगर के लिए चल देंगे। आज दोपहर में भोजन के बाद नगर में ढिंढोरा पिटवा देता हूँ... कि कल बहन यहाँ से चली जाएंगी... जिन्हें भी बहन के दर्शन करना हो... आ जाएँ।' रत्नजटी सुरसुंदरी के आवास में से निकला। अपने कक्ष में चला गया। सुरसुंदरी जाते हुए रत्नजटी को देखती ही रही... उसकी आँखें बहने लगी... महान है... भैया तू! तू संसार में सत्पुरूष है रत्नजटी! खारे-खारे समुद्र में तू मीठे झरने-सा है... तूने अपना वचन बराबर निभाया!' । सुरसुंदरी रत्नजटी के आंतर-बाह्य व्यक्तित्व की महानता को सोचती ही रही... 'तू जवान है... राजा है, तेरे पास सत्ता है... शक्ति है... संपत्ति है... पर फिर भी तू इंद्रियविजेता है। तेरा मनोनुशासन अद्भुत है... तेरा अपने आप पर पूरा नियंत्रण अद्भुत है। तेरी वचन-पालन की शक्तिदृढता कितनी महान् है? तूने गजब का दुष्कर कार्य किया है। साधु पिता का तू सचमुच साधु-पुत्र है! मेरे भैया... मेरे वीर! तुझे मैं जिंदगी में कभी नहीं भूला पाऊँगी। अब तो मेरी जिंदगी कितनी सूनी-सूनी हो जाएगी तेरे बगैर... तुम्हारे बगैर! भाई का प्यार बचपन में तो मिला नहीं... देखा नहीं! तुझ-सा भैया मिला... पर क्या ये 'पल दो पल का मिलना... जीवनभर का बिछड़ना...' कैसी है जिंदगी... कहाँ से कहाँ ले आयी मुझे? सुरसुंदरी फफक पड़ी। उसने पलंग में गिरकर तकिये में अपना चेहरा छुपा लिया, उसके आँसू बहते रहे। उसकी सिसकियाँ बढ़ती ही चली। मध्यान्ह के भोजन का समय हो गया था। सुरसुंदरी उठी... रत्नजटी को आग्रह करके बुला लायी, अपने हाथों बड़े प्रेम से खाना खिलाया । रानियों ने सुरसुंदरी को प्यार से, मनुहार करके खाना खिलाया। रानियों ने भी भोजन कर लिया। नगर में ढिंढोरा पिट गया था। नगर की परिचित औरतों का प्रवाह राजमहल में आना प्रारंभ हो गया था। राजमहल के विशाल दालान में चारों रानियों के साथ सुरसुंदरी बैठी हुई थी। नगर की प्रतिष्ठित सन्नारियों से खण्ड भर गया था। सुरसुंदरी सभी For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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