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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रीत न करियो कोय १९४ भैया, अनंत-अनंत पुण्य का उदय हो तब ही ऐसा अनुकूल पारिवारिक जीवन मिलता है। ऐसे सुंदर स्वस्थ एवं सहज वातावरण में मनुष्य चाहे उतना धर्म कर सकता है । ' 'हमारा जीवन तो वैभव-विलास से भरा हुआ ही है। फिर भी 'दृष्टि' बदली जा सकती है। ‘दृष्टिकोण' बदला जा सकता है । भोगी भी त्याग का लक्ष्य रख सकता है। हृदय के मंदिर में ज्ञानदृष्टि का रत्नदीप जल सकता है। बाहर से विलासी जीवात्मा भी भीतर से अनासक्त रह सकता है...' रत्नजटी का विषाद दूर हो गया । उसका मन प्रफुल्लित हुआ। उसके चेहरे पर प्रसन्नता के फूल खिल उठीं... और यह देखकर उसकी चारों रानियाँ भी खिलखिला उठी। उनके नयन नाच उठे । सुरसुंदरी ने रत्नजटी को भोजन करवाया... फिर भाभियों के साथ बैठकर भोजन किया । भोजन करके सभी अपने-अपने खंड में चले गये । सुरसुंदरी अपने निवास में आयी । वस्त्र बदलकर उसने विधिवत् श्री नवकार महामंत्र का जाप किया। ध्यान से निवृत्त होकर विश्राम करने के लिए वह जमीन पर लेटी । उसके मनोजगत में रत्नजटी उभर आया । रत्नजटी के गुणमय व्यक्तित्व के प्रति उसके मन में आदर था। आज वह आदर निर्मल स्नेह से और ज्यादा प्रगाढ़ बना था। रत्नजटी केवल बाहरी व्यावहारिक भूमिका पर ही भाई-बहन के रिश्ते को नहीं संभाल रहा था ... इस बात की उसे आज प्रतीति हो चुकी थी । रत्नजटी के दिल में बहन के रूप में अपनी स्थापना हुई उसने देखी। बहन के प्रति कर्तव्यपालन की जागृति उसने पायी। बहन के सुख के बारे में सोचनेवाला रत्नजटी का व्यक्तित्व उसे भव्य उदात्त लगा... उन्नत प्रतीत हुआ । उसे अब यह भी तसल्ली हो गयी कि रत्नजटी सचमुच ही अब उसे कुछ ही दिनों में बेनातट नगर में पहूँचा देगा । ऐसे स्नेह-सलिल से छल-छल सरोवर सा परिवार को छोड़कर मुझे जाना होगा ? इस विचार ने उसे कँपकँपा दिया । 'हाँ, वैसे भी अब मुझे जाना हीं चाहिए । अमर मिले इससे पहले ही मुझे उसका सौंपा हुआ कार्य भी करना है । 'सात कौड़ी से राज लेना..., उसने मुझे For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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