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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हंसी के फूल खिले अरसे के बाद! १२६ WEAT r amatara.statestaur. AAPI[२०. हंसी के फूल खिले...अरसे के बाद PARY Y : ETTE + C''TERYLIMorar03MPRE'RExerryi-55-8H. xisru ' emaerarms 'मुझे यहाँ से जल्द से जल्द भाग जाना चाहिए | बड़ी चतुराई से भागने की योजना बनानी होगी... मेरा मन तो कहता है कि शायद यह परिचारिका मुझे उपयोगी हो सके! इसकी आंखों में मेरे लिए सहानुभूति तैर रही थी। पर क्या पता... वह कुछ और सोच रही हो : 'यह नयी आयी हुई स्त्री इस भवन की मुख्य वेश्या होनेवाली है... मैं इसके साथ अभी से अच्छा रिश्ता कायम कर लूँ तो बाद में यह मुझे मालामाल कर देगी और मेरा रोब-दाब भी रहेगा औरों पर। इस दुनिया में बिना किसी स्वार्थ के कौन स्नेह करता है... और कौन सहानुभूति जताता है? फिर भी आज जब वह आएगी तब में गोल-गोल बात करके देखूगी... पूरे भरोसे के बगैर तो भागने का नाम नहीं लूँगी... अन्यथा वह सीधी ही जाकर लीलावती को बता दे कि यह नयी औरत भागने की फ़िराक़ में है।' तब तो मुझे इसी कमरे में फाँसी लगाकर मरना पड़े! हालाँकि जीने की अब मेरी इच्छा ही नहीं है। किसके लिए जीना है? अब शायद अमर मिले भी नहीं... इत्तफाक से मिल भी जाए और मैं उसके पास जाऊँ, फिर भी वह मुझे दुत्कार दे तो? उसने क्या पता अन्य स्त्री के साथ शादी कर ली होगी तो? पुरूष पर भरोसा कैसे किया जाए? पर इस तरह मैं कब तक भटकती रहूँगी? और अनजान देश-प्रदेश में अपने शील की सुरक्षा कैसे करूँगी? उस नराधम फानहान ने मुझे कैसे धोखा दिया? मीठी-मीठी बातें करके मुझे नगर में ले आया और फिर बीच-बाजार मे खड़ी कर दिया, बिकाऊ माल की तरह। मुझे नीलाम पर चढाया... वह भी एक वेश्या के हाथों। कितनी बदनसीबी है मेरी? क्या मेरी बदनसीबी का कोई अंत नहीं है? कोई सीमा ही नहीं है? कभी जिसके बारे में सोचा तक नहीं था, ऐसी परिस्थिति के पाश में आ बँध गयी हूँ! मैंने अपने गत जन्मों में कितने पाप किये होंगे? ऐसे कैसे कर्म बंधन रहे होंगे? और यदि इतने ढेर सारे पाप ही पाप किये हैं तो फिर मेरा जन्म राजपरिवार में क्यों हुआ? क्यों मैं संभ्रांत श्रेष्ठी परिवार की बहू बनी? इतनी खूबसूरती क्यों मिली मुझको? शील व सदाचार के ऊँचे संस्कार क्यों मिले? सभी पाप कर्म एक साथ क्यों उदित नहीं हुए? For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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