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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९७ पिता मिल गये 'ज़रूर! पर कुछ दिन तुझे यहाँ रहना होगा। बेनातट नगर की ओर जानेवाला कोई जहाज़ यहाँ से गुजरेगा... उसमें तुझे बिठा दूंगा | तुझे बेनातट में तेरे पति का मिलन होगा।' 'तो मैं आपका उपकार कभी नहीं भूलूंगी।' 'ओह! तेरी कृतज्ञता-गुण कितना महान है! मैं तेरे पर प्रसन्न हूँ बेटी, अब मैं तेरी ज़बान से तेरी रामकहानी सुनना चाहता हूँ | यदि तुझे एतराज न हो, तो बचपन से लेकर आज तक की बातें मुझे बता! बताएगी न मुझे, बेटी?' 'ज़रूर... जब आपने मुझे बेटी माना है, तो फिर आपसे क्या छुपाऊँ?' सुरसुंदरी ने अपना सारा वृत्तांत यक्ष को कह सुनाया। पर उसमें कहीं भी अमरकुमार के प्रति कटुता या दुराव नहीं आया, तब यक्ष ने परेशानी से पूछा : 'बेटी तू राजकुमारी है... क्या तुझे अपने पति के प्रति गुस्सा नहीं आया?' 'उन पर गुस्सा क्यों करूँ? वे तो गुणवान पुरूष हैं... मेरे ही पापकर्म उदय में आये, इसलिए उन्हें मेरा त्याग करने की सूझी। वे तो निमित्त बने हैं।' 'पर उसने तुझको दुःखी तो किया है न?' 'उन्होंने मुझे दुःखी नहीं किया, मेरे ही पापकर्मों के उदय से दुःखी हुई हूँ| फिर भी अब वह दुःख चला गया।' 'किस, तरह?' 'पति छोड़ गये... पर पिता जो मिल गये! अब मैं दुःखी नहीं हूँ।' 'तू दुःखी हो भी नहीं सकती कभी... तेरे पास नवकार मंत्र जो है।' 'मेरा शील अखंड रहे, तब-तक मैं सुखी ही हूँ।' 'बेटी, तेरे नवकार मंत्र के प्रभाव से तेरा शील अखंड ही रहेगा। इस द्वीप पर तू तेरी इच्छानुसार रहना और घूमना । मैं तुझे चार उपवन बता देता हूँ| तुझे यह स्थान पसंद आ जाएगा। उपवन में मनचाहे मधुर फल मिलेंगे। मीठामधुर पानी मिलेगा... और कोमल पण की शय्या मिलेगी। 'बस... बस... इससे ज्यादा मुझे ओर चाहिए भी क्या?' 'तो चल, मेरे साथ उपवन में चलें।' सुरसुंदरी ने इस दौरान काफी स्वस्थता पा ली थी। यक्षराज के साथ वह उपवन की ओर चली। For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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