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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५ राजकुमार अभयसिंह भद्रक ने मुनिराज के चरणों में बैठे हुए खरगोश के सर को निशाना बनाकर हँसिया फेंका | पर हँसिया दीवार से टकराकर औंधा गिरा... और भद्रक के सर पर आकर टकराया। उसके सर में से खून बहने लगा...उसे काफी पीड़ा होने लगी। वह बेहोश होकर जमीन पर गिर गया। जंगल की शीतल-शीतल हवा के झोंको ने जब उसकी बेहोशी दूर की तब उसने समीप खड़े मुनिराज को देखा। मुनिराज तो चन्द्रमा जैसे शांत थे। चंदन जैसी शीतल उनकी बोली थी। तपश्चर्या का तेज उनके चेहरे पर झिलमिला रहा था। भद्रक ने मुनिराज के दर्शन किये। उसके पाप विचार दूर हो गये। उसके मन में विचार आया : 'सचमुच तो मेरे पाप का फल मुझे यहीं पर मिल गया। फिर भी मेरे किसी पुण्य का उदय होगा... वरना मेरे हाथों ऐसे पवित्र मुनिराज की हत्या हो जाती। किसी आदृश्य शक्ति ने ही मुझे भयंकर पाप से बचा लिया। यदि इन मुनि की हत्या मेरे हाथ से हो जाती तो मुझे मर कर नरक में ही जाना पड़ता। भद्रक ने मुनिराज को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया...सर झुकाकर वंदना की। मुनिराज ने ध्यान पूर्ण करके भद्रक की ओर देखा । उसे आशीर्वाद दिया और बड़ी मीठी आवाज में कहा : ___वत्स, तू क्यों जीवहिंसा का पाप करता है? जीवहिंसा तो सभी दुःखों को बुलाने का निमंत्रणपत्र है। मांसभक्षण करनेवाले भी जो हिंसा करते हैं... वे मरकर नरक में जाते हैं। जो आदमी दयाधर्म का पालन करता है, वह मरकर स्वर्ग में जाता है... उसे अपार सुख प्राप्त होते हैं।' मुनिराज के वात्सल्य से छलकते शब्द सुनकर भद्रक के मन में विवेक जागा। उसने नम्रता से कहा : 'महात्माजी, आज से जीवनभर मैं जीवहिंसा नहीं करूँगा। आपने मुझे उपदेश देकर मेरे ऊपर महान उपकार किया है।' मुनिराज ने कहा : 'वत्स! आज तू धन्यवाद का पात्र बना है... आज तूने जीवदया का धर्म प्राप्त किया है। सभी सुखों की जड़ हैजीवदया। इस जीवदया धर्म के पालन से तुझे विपुल सुख-संपत्ति प्राप्त होंगे।' __भद्रक मुनिराज को भावपूर्वक वंदना करके अपने गाँव में आया। उसने अपने जीवन को धर्ममय बनाया । दया धर्म का पालन बड़ी दृढ़ता एवं श्रद्धा के For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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