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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ पराक्रमी अजानंद __ अजानंद सबका अभिवादन स्वीकार करते हुए राजमहल के द्वार पर पहुँचा। राजमहल के रक्षक सैनिक राजा के वफादर थे। उन्होंने सामना किया। अजानंद ने उनको मार हटाया। और वहाँ अपने सैनिक लगा दिये। __ अचानक अजानंद को सेना के साथ राजमहल में आया देखकर राजा चन्द्रापीड़ दोनों हाथ में तलवार लेकर दौड़ आया। अजानंद तैयार ही था। दोनों के बीच भयानक युद्ध हुआ। एक घंटे तक दोनों जूझते रहे। आखिर अजानंद ने चन्द्रापीड़ पर तलवार का जोरदार प्रहार करके उसका सर शरीर से अलग कर दिया। सेना ने अजानंद के जयनाद से वातावरण को गुंजायमान कर दिया। सबद्धि मंत्री ने कहा : 'अभी का समय श्रेष्ठ है...आपका राज्याभिषेक अभी ही संपन्न हो जाना चाहिए।' 'नहीं।' अजानंद ने कहा : _ 'पहले राजा चन्द्रापीड़ का अग्निसंस्कार किया जाना चाहिए। उसकी उत्तरक्रिया निपटाने के पश्चात् राज्याभिषेक की क्रिया होगी। सभी ने अजानंद की बात को स्वीकार किया। चन्द्रापीड़ का अंतिम संस्कार किया गया। उसकी उत्तरक्रिया की गई। फिर अजानंद के राज्याभिषेक का भव्य उत्सव मनाया गया। उस महोत्सव में इर्द-गिर्द के कई राजामहाराजा भी सम्मिलित हुए थे। अनेक राजाओं ने अपनी-अपनी राजकुमारियों के साथ अजानंद की शादी का प्रस्ताव रखा। अजानंद ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करते हुए राजकुमारियों के साथ शादी की। अजानंद चंद्रानना नगरी का राजा बन कर स्वर्ग के सुख भोगने लगा। __ वसन्त ऋतु का आगमन हुआ। नगर में उत्सव मनाये गये। नगरवासी लोग सुन्दर कपड़े-गहने पहन कर नगर के बाहर बगीचों में आनंद-प्रमोद करने के लिए जा पहुँचे। राजा अजानन्द भी अपनी रानियों के साथ बगीचे में पहुंचा। बगीचे में वह घूम रहा था... इतने में उसके कानों पर एक दिव्य आवाज सुनाई दी। 'तू जहाँ पर है...तेरी माँ भी वहीं पर है... पर तू तो अपनी माँ की सुधबुध भी नहीं लेता है... अपने सुख में डूब गया है, धिक्कार है तुझे!' यह आवाज एक बार नहीं पर बार-बार उसे सुनाई देने लगी। For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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