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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ११९ वे मनुष्य स्त्रियाँ थी यह तो निश्चित था । अजानंद उन स्त्रियों का रूप-सौन्दर्य देखकर मुग्ध हो उठा था! इतने में जैसे कि कोयल कूक उठी...एक सुंदरी बोली : 'अरे...कितनी देर हो गई है... बातों ही बातों में कितना समय निकल गया... हम को अभी तो अष्टापद तीर्थ पर जाना है। वहाँ पर देवराज इन्द्र अनेक देवियों के साथ आनेवाले हैं... इसलिए अब जलक्रीड़ा छोड़कर जल्दी से बाहर निकलो...' ___ वास्तव में ये स्त्रियाँ विद्याधर-स्त्रियाँ थी। अजानंद ने उनकी बातें सुनी। उसने सोचा : 'मैंने मृत्युलोक देखा, नरक की धरती भी देखी है... अब यदि वैमानिक देव-देवियों को प्रत्यक्ष देखना हो तो मुझे इन स्त्रियों के साथ अष्टापद पर्वत पर जाना चाहिए | ऐसा मौका नहीं खोना चाहीए ।' __नरबंदर का दिया हुआ हार और सरोवर का पानी नरबंदर और नरमगर को सौंप कर अजानंद ने व्यंतरेन्द्र की दी हुई गुटिका का प्रयोग किया | रूप परिवर्तन कर वह एक भ्रमर बन गया । ___ उन स्त्रियों के हाथ में कमल के फूल थे। उन फुलों पर वह भ्रमर बैठ गया। स्त्रियों ने अपने विमानों को आकाश में उड़ाये | भ्रमर ने मधुर गुंजारव करना शुरु किया। विद्याधर स्त्रियों को मजा आ गया । भ्रमर एक-एक करके सभी के पास जाता है... और गुंजारव करता है। इतने में दूर से अष्टापद पर्वत दिखाई दिया। पर्वत के एक सर्वोच्च शिखर पर सुवर्णमय भव्य जिनमंदिर था। वह देखकर भ्रमररूप में रहा हुआ अजानंद सोचता है...'अरे, क्या यह साक्षात् मोक्ष है? या परमात्मस्वरूप का तेजपुंज है?' वह मन ही मन नाच उठा। सब विमान अष्टापद पर्वत पर उतर गये। स्त्रियाँ भी विमान में से बाहर निकली। पूजन की सामग्री लेकर वे स्त्रियाँ मंदिर में प्रविष्ट हुई। अजानंद भी मंदिर में प्रविष्ट हुआ और भ्रमररूप में मधुर गुंजारवर करने लगा। स्त्रियों ने चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों की पूजा की और भक्तिपूर्वक स्तवना करने लगी। इतने में देवराज इन्द्र का विमान भी आ पहुँचा। इन्द्र ने शुद्ध कीमती वस्त्रालंकार पहने हुए थे। साथ की देवियों ने भी श्रेष्ठ सिंगार रचाया था। सबने मंदिर में आकर विधिपूर्वक चौबीस तीर्थंकरों की पूजा की। देवेन्द्र मंदिर के रंगमंडप में जाकर बैठे। गीत-संगीत से भावपूजा का प्रारम्भ हुआ । वाद्य बजने लगे। गायकों ने गीत गाने शुरु किये। देवियों ने घुघरु छनकाते हुए For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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