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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ११७ दूर होकर वह भी मनुष्य रूप में आ गया था। दोनों की बेहोशी दूर हुई। दोनों में चेतना का संचार हुआ। राजा ने अजानंद को अपने सीने से लगा लिया और राजा ने सर्वांगसुन्दरी से कहा : 'देवी, यह मेरा घनिष्ट मित्र है। छह महीने बाद हम वापस मिल पाये हैं। राजा की आँखों में खुशी के आँसू उभर आये। सर्वांगसुन्दरी ने राजा को, अजानंद को और मगरमच्छ में से मनुष्य बने हुए आदमी को दिव्य वस्त्र और अलंकार दिए और उनका सुन्दर सत्कार करके उन्हें अपने घर में ही रखा। __एक दिन अजानंद ने राजा से कहा : 'महाराजा, आपके बिना आपका परिवार और आपकी प्रजा बड़ी दुःखी है। अब हमलोगों वापस अपने नगर में लौट जाना चाहिये ताकि राजपरिवार की और प्रजाजनों की चिंता दूर हो सके। राजा के मन में अजानंद की बात अँच गयी और उसने जाकर सर्वांगसुन्दरी से कहा : 'देवी, अब हम यहाँ से जाने का इरादा रखते हैं। तू मुझे इजाजत दे। मेरे बिना मेरा परिवार और नगर के लोग सब परेशान एवं चिंतित हैं। अब मुझे जाना ही चाहिये। तूने मुझे भरपूर सुख दिया है, मैं तुझे कभी नहीं भूल सकता।' ___ सर्वांगसुन्दरी की आँखों में आँसू उमड़ आये। उसने भरी आवाज में राजा से कहा : 'स्वामी, मेरी किस्मत थी जो आप इतना समय मेरे पास रहे। अब आपकी इच्छा अपने नगर में लौटने की है। मैं आपको कैसे रोकूँ? जिसे जाना हो उसे कौन रोक सकता है? फिर भी आप मुझे भूल मत जाना । मेरा हृदय तो आपके साथ और आपके पास ही रहेगा! सचमुच दुनिया में पुरुष होना कितना अच्छा है। पुरुष जहाँ चाहे वहाँ जा सकता है, जो चाहे वह कर सकता है। मगर औरत का जीवन तो पराधीन सा ही होता है। चूंकि उन्हें हमेशा किसी न किसी के ऊपर निर्भर रहना पड़ता है और फिर दुनिया में मिलना और बिछुड़ना तो चलता ही रहता है। मनुष्य कभी-कभी अपने ही हाथों दुःख को बुलावा भेजता है। प्रिय व्यक्ति के मिलन में सुख तो जरा सा होता है जबकि जुदाई में दुःख पहाड़ बनकर टूट गिरता है। इतना सब समझने पर भी स्वामी, मैं आपके प्रति अनुरागी बनी हुई हूँ| अब तो मैं आपसे काफी दूर रहँगी पर फिर भी आप मुझे अपनी ही समझना। जब भी आपको मेरी जरुरत पड़े, मुझे याद कर लेना।' For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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