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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १०९ 'राजाजी, जो होना था सो हो गया। अब इतना रोने से क्या फायदा? और फिर आपने थोड़े ही कुमार को मारा है? कुमार को तो उस बाघ ने मारा है। आप अब स्वस्थ हो जाइये और राजकुमार के शरीर की जो उत्तरक्रिया करनी हो वह निपटाइये।' धीरे-धीरे राजा की सिसकियाँ बंद हुई। उसके आँसू थमे। राजा कुछ स्वस्थ हुआ और कुमार की जो भी उत्तरक्रिया करनी थी वह की। राजा ने अजानंद को अपने साथ बिठाकर भोजन किया। फिर उसे कीमती वस्त्रअलंकार भेंट करके सम्मानित किया। राजा ने अजानंद का सच्चे दिल से आभार मानते हुए कहा : __'ओ परोपकारी महापुरूष! तुम सचमुच तेजस्वी हो, महान हो! जैसे सूरज अपनी किरणों के द्वारा अंधेरे को चीरकर दुनिया को रोशनी देता है, वैसे तुमने अपने पराक्रम से मेरे दुर्भाग्य को दूर करके मुझे नया जीवन दिया है और मुझे स्वस्थ किया है। मैं यदि मेरा सर्वस्व भी तुझे अर्पण कर दूं तो भी तेरे इस उपकार का बदला मैं नहीं चुका सकता क्योंकि तूने तो मुझे जिन्दगी दी है और जीवन देनेवाले का बदला कभी कोई नहीं चुका सकता। तूने उपकार के बदले की आशा रखे बगैर मेरे ऊपर यह महान उपकार किया, मैं तुझे क्या दूं? ले, यह मेरा सारा राज्य मैं तुझे दे देता हूँ! तू इसको स्वीकार कर | मुझे इससे बड़ी खुशी मिलेगी, मुझे संतोष होगा।' दुर्जयराजा ये शब्द सच्चे अन्तःकरण से बोल रहा था। उसके दिल में अजानंद के प्रति अपार स्नेह उभर रहा था। अजानंद ने कहा : 'महाराज! यह आपका महान गुण है। आप वाकई में कृतज्ञ हैं। आपका मेरे ऊपर जो इतना स्नेह है, वही मेरे लिए सब कुछ है। राज्य आपका है और आप ही उसे सम्हालें! ठीक है, मैं मेरे मन से राज्य को मेरा मान लेंगा! मैं यह चाहता हूँ कि अपने बीच में दोस्ती का अटूट रिश्ता बना रहे, क्योंकि सज्जन पुरुषों को दोस्ती प्रिय होती है। सत्पुरुषों के साथ दोस्ती रखने से बुद्धि बढ़ती है, क्लेश दूर होता है। गलतियाँ नहीं होती है। गुण बढ़ते हैं। सुख बढ़ता है, यश फैलता है और सम्पत्ति बढ़ती है। आदमी धर्माभिमुख बनता है--अरे! दिल की दोस्ती तो सचमुच कामधेनु के बराबर होती है।' दुर्जयराजा ने अजानंद को अपना दोस्त बनाया और उसे अपने पास रखा। राजा अजानंद के लिए हर एक सुविधा का ध्यान रखता है। अजानंद के दिन हँसते-हँसाते मौज मनाते बीतने लगे। एक दिन अजानंद ने राजा से कहा : For Private And Personal Use Only
SR No.009636
Book TitleMayavi Rani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size1 MB
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