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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पत्र ९ ६६ अनन्त दुःख होता है (एक - एक शरीर में अनन्त जीवों का जन्म - मृत्यु होता रहता है) वहाँ परमात्मदर्शन की संभावना ही नहीं होती । इसलिए कविराज कहते हैं - अब तो सखी, मुझे दर्शन करने दे । आज तो मैं मनुष्य हूँ । मुझे पाँच इन्द्रियाँ हैं, मन है... परमात्मा का संयोग है... तो फिर दर्शन में क्यों रुकावट ? 'पुढवी आउ न लेखियो तेउ वाउ न लेश' 'वनस्पति अति घण दिहा दीठो नहीं देदार' [पुढवी = पृथ्वी, आउ = पानी, तेउ = अग्नि, वाउ दिह = दिवस] Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir = वायु, घण = For Private And Personal Use Only बहुत, निगोद से निकला, पृथ्वी के जीव के रूप में जन्मा, पानी का जीव बना, अग्नि का जीव बना, वायु का जीव बना, वनस्पति का जीव बना... इन योनियों में भी असंख्य काल बीता... परन्तु हे सखी, परमात्मा का दर्शन नहीं हो पाया । इन योनियों भी मात्र एक ही स्पर्शनेन्द्रिय थी, मन नहीं था! कैसे मैं परमात्मा का दर्शन कर पाता ? 'बि-ति- चउरिंदिय जललीहा गतसन्नि पण धार... ' संसार यात्रा आगे बढ़ी। बेइन्द्रिय बना । स्पर्शनेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय-दो इन्द्रियाँ मिली। शंख बना, कृमि बना, लकड़ी में कीड़ा बना...। बाद में तेइन्द्रिय बना। तीसरी घ्राणेन्द्रिय मिली । खटमल, जूं, मकोड़ा,... वगैरह बना...। बाद में चउरिन्द्रिय बना। चौथी चक्षुरिन्द्रिय मिली । बिच्छु, भ्रमर, मक्खी...मच्छर...वगैरह बना...। बाद में पंचेन्द्रिय बना । पाँचवीं श्रवणेन्द्रिय मिली ... ... परन्तु मन नहीं मिला । [गतसन्नि=असंज्ञी=मनरहित] जलचर [जललीहा] जीव बना [पणउपंचेन्द्रिय] पंचेन्द्रिय बना परन्तु बिना मन का । सखी, ऐसी योनियों में मैं परमात्मा के चन्द्र समान मुख का दर्शन कैसे करता? नहीं मिला वहाँ प्रभुदर्शन...इसलिए कहता हूँ कि यहाँ मुझे परमात्मा के दर्शन करने दे । सुर- तिरि-निरय-निवासमां मनुज अनारज साथ अपज्जत्ता प्रतिभासमां चतुर न चढियो हाथ । [सुर = देव, तिरि = पशु-पक्षी, निरय = नरक, मनुज = मनुष्य, अनारज = अनार्य]
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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