SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र ४ संभवदेव ते धुर सेवो सवेरे, लही प्रभु सेवन भेद, सेवन कारण पहेली भूमिका रे, अभय - अद्वेष - अखेद... भय- चंचलता हो जे परिणामनी रे, द्वेष - अरोचक भाव, खेद-प्रवृत्ति हो करतां थाकीये रे, दोष-अबोध लखाव... चरमावर्ते हो चरम-करण तथा रे, भवपरिणति परिपाक, दोष टले वली दृष्टि खीले भली रे, प्राप्ति प्रवचन- वाक्... परिचय पातक-घातक साधुशुं रे, अकुशल अपचय-चेत, ग्रन्थ अध्यातम-श्रवण-मनन करी रे, परिशीलन नय हेत... कारण- जोगे हो कारण नीपजे रे... एमां कोई न वाद, पण कारण विण कारज साधिये रे, ए निज मत उन्माद... मुग्ध सुगम करी सेवन आदरे रे, सेवा अगम - अनूप, देजो कदाचित् सेवक-याचना रे, आनन्दघन रसरूप... २३ चेतन, आज सदेह तीर्थंकर तो यहाँ इस क्षेत्र में नहीं हैं, परन्तु उनकी मूर्तियाँ-प्रतिमायें हैं, हमें उन प्रतिमाओं को ही तीर्थंकर मानकर, उनकी सेवा करनी है। तू गृहस्थ है तो तुझे परमात्मा की जलपूजा, चंदनपूजा, पुष्पपूजा, धूपपूजा, दीपकपूजा, अक्षतपूजा, नैवेद्यपूजा और फलपूजा करनी चाहिए। इस पूजा को द्रव्यपूजा कहते हैं, चूँकि जलादि द्रव्यों से पूजा होती है । द्रव्यपूजा करने के बाद भावपूजा करनी चाहिए । स्तुति, प्रार्थना, स्तवना.... जाप - ध्यान... भावपूजा है । हम द्रव्यपूजा नहीं कर सकते, मात्र भावपूजा ही कर सकते हैं। चूँकि हम साधु हैं, श्रमण हैं । साधु के पास पूजन के द्रव्य नहीं होते हैं और स्नान भी नहीं कर सकते हैं, इसलिए वे द्रव्यपूजा नहीं कर सकते। For Private And Personal Use Only चेतन, तेरा जन्म तो श्रद्धासंपन्न परिवार में हुआ है। तेरे माता-पिता को कुलपरंपरा से जैनधर्म की प्राप्ति हुई है, वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा मिले हुए हैं, इसलिए तुझे भी जन्म से जैनधर्म और वीतराग परमात्मा मिले हैं। परन्तु जो जन्म से जैन नहीं हैं, जिनको जन्म से सर्वज्ञ - वीतराग परमात्मा नहीं मिले हैं, उनके लिए भी श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि 'तुम्हें जो भी परमात्मा-स्वरूप मिला हो, उनकी सेवा - उपासना के प्रकारों को जानकर, समझकर उस परमात्मा-स्वरूप की तुम सेवा करते रहो । चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो या महेश हो ! तुम सेवा करते रहो।
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy