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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र ४ २२ ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। ० इष्ट के वियोग का भय और अनिष्ट के संयोग का भय-ये दो भय मनुष्य के भावप्राणों का नाश कर देते हैं। जब तक हम जीवद्वेषी और जड़प्रेमी बने रहेंगे, तब तक हम भयों से मुक्त नहीं हो सकते। ० जब मिथ्यात्व का दोष दूर होता है, तब पाँचवी 'स्थिरा' दृष्टि खुलती है। योगमार्ग में आठ दृष्टि बतायी गई है-मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा, परा। ० चेतन, मतों का उन्माद जानना हो तो तुझे धर्मों का इतिहास पढ़ना होगा।... उन्मादों ने अनर्थ ही पैदा किए हैं... 'अक्रमविज्ञान' की बातें करने वाला मतोन्माद आज भी कुछ जगह फैला हुआ है। ।। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । पत्र : ४ श्री संभवनाथ स्तवना प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला। श्री आनन्दघनजी की परमात्म-स्तवनाओं ने तेरे हृदय को आनन्द से भर दिया... जानकर मेरा हृदय भी आनन्दित हो गया। अभी तो चेतन, तूने मात्र दो स्तवनाओं का ही रसास्वाद किया है, जब तू सभी तीर्थंकरों की स्तवनाओं का अध्ययन करेगा, तब तेरा आन्तर आनन्द सहस्रगुना बढ़ जायेगा। जिस परमात्मा से प्रीत की सगाई हो गई और जिनके पास पहुँचने की तीव्र इच्छा हो गई... उनकी स्मृति बार-बार आती रहती है...। 'उनको पाने के लिए मैं क्या-क्या करूँ?' ऐसी भावना जाग्रत होती है। यदि सदेह तीर्थंकर भगवंत इस धरती पर विचरते होते तो हम उनके चरणों में पहुँच जाते... उनकी भक्ति करते... सेवा करते। उनके अमृत वचनों का श्रवण करते... और उनकी आज्ञा का पालन करते। परन्तु दुर्भाग्य है अपना कि आज इस भारत की धरती पर... या वर्तमान विश्व में... कि जहाँ मनुष्य जा सकता है... कहीं पर भी परमात्मा नहीं हैं। वे तो हैं, सिद्धशिला पर... या महाविदेह क्षेत्र में | वहाँ जाने का कोई रास्ता नहीं है... है तो जाने की शक्ति नहीं है। कैसे उनकी सेवा करूँ? कविश्री संभवनाथ की स्तवना करते हुए कहते हैं For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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