SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र १९ १६१ धर्मतीर्थ की स्थापना एक प्रकार का शुद्ध व्यवहार है। आपने निश्चयनय के माध्यम से पूर्णता पायी और पूर्णता प्राप्त कर लोकहित के लिये धर्मतीर्थ की प्रवर्तना की! यानी व्यवहार-धर्म की पालना की। जो कोई जीव, धर्मतीर्थ की आराधना करता है [तीरथ सेवे] वह अवश्य [निरधार] आनन्दघन [मोक्ष] पाता है, [लहे] परंतु यह फल तो चेतन, पारम्परिक फल है। अनन्तर फल है, तत्त्वसार | तीर्थ की [धर्मशासन की] आराधना के ये दो प्रकार के फल हैं। निश्चय नय से अद्वैत-दशा तो बता दी, निर्विकल्प समाधि भी बता दी, परंतु श्री आनन्दघनजी ने तो द्वैतदशा ही चाही! परमात्मा के चरण चाहे, परमात्मा से प्रेम किया और परमात्मा के धर्मतीर्थ की सेवा चाही! यानी उन्होंने व्यवहार नय से ही आत्मशुद्धि का मार्ग पसंद किया। _ 'तो फिर उन्होंने निश्चय नय से शुद्ध अद्वैत की बात क्यों की?' ऐसा प्रश्न तेरे मन में जरुर पैदा होगा। उन महापुरुष ने बहुत सोच कर शुद्ध अद्वैत की, निर्विकल्प समाधि की बात की है। चूंकि हर मुमुक्षु को अपने हृदय में निश्चय नय से आत्मा को लक्ष्य बनाना है । बाह्य आचरण में व्यवहार नय को प्रधानता देने की है। चेतन, कभी-कभी हृदय में निश्चय नय से शुद्ध आत्मा में लीन होने का प्रयत्न तो करना! मजा आयेगा तुझे । और, धर्मतीर्थ के प्रति तेरी श्रद्धा अविचल रहनी चाहिए, यानी जिनवचनों के प्रति प्रतिबद्धता रहनी चाहिए | जिनवचनों से निरपेक्ष होकर, निश्चयनय से मनमानी आत्मविषयक बातें करनेवालों के फंदे में मत फँसना! सावधान रहना.... - प्रियदर्शन For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy