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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र १७ १३९ तेरे घर की खिड़की से पहाड़ दिखाई देता है न? मान ले कि तूने पहाड़ के ऊपर धुआँ निकलता देखा। तू सोचेगा कि 'पहाड़ पर आग लगी होनी चाहिए, अन्यथा इतना धुआँ कहाँ से आयेगा?' तूने धुआँ देखकर आग का अनुमान किया । धुएँ के आधार पर अग्नि को सिद्ध किया । संस्कृत में कहते हैंयत्र यत्र धूमः तत्र तत्राग्निः । जहाँ-जहाँ धुआँ, वहाँ-वहाँ अग्नि | इसको 'अन्वय' कहते हैं, विधि कहते हैं | 'जहाँ अग्नि नहीं, वहाँ धुआँ नहीं!' धुएँ के बिना आग हो सकती है, परन्तु आग के बिना धुआँ नहीं हो सकता! इस प्रकार के चिन्तन को 'व्यतिरेक' कहते हैं, प्रतिषेध कहते हैं। योगीराज कहते हैं-आत्मतत्त्व का निर्णय विधि-प्रतिषेध से कर लो। यों तो महाजनों ने-विशिष्ट ज्ञानीपुरुषों ने आत्मतत्त्व का स्वीकार [ग्रहणविधि] विधिप्रतिषेध' के माध्यम से ही किया है। आगम-ग्रन्थों में आत्मतत्त्व के निर्णय की यही प्रक्रिया बतायी गई है। आत्मा का लक्षण 'चेतना' है। जहाँ-जहाँ चेतना, वहाँ-वहाँ आत्मा । यह है, विधि-अन्वय | जहाँ चेतना नहीं, वहाँ आत्मा नहीं। यह है, प्रतिषेध-व्यतिरेक । इस प्रकार अपने आत्मा की प्रतीति करना, आत्मस्वरूप का निर्णय करना, बहुत ही आवश्यक है। इसलिए शास्त्रज्ञान प्राप्त करना चाहिए। अप्रमत्त होकर शास्त्रबोध प्राप्त करना चाहिए। श्रद्धावान् होकर शास्त्र-अवगाहन करना चाहिए | इसको 'शास्त्रयोग' कहते हैं। चेतन, आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी ने 'योगदृष्टि-समुच्चय' ग्रन्थ में जैसे १. योगावंचक, २. क्रियावंचक और ३. फलावंचक-ये तीन योग बताये हैं, वैसे १. इच्छायोग, २. शास्त्रयोग और ३. सामर्थ्यंयोग-ये तीन योग भी बताये हैं। प्रस्तुत स्तवन में योगीराज ने 'शास्त्रयोग' की बात की है और आगे 'सामर्थ्ययोग' की बात करनेवाले हैं इसलिए इन तीन योगों का स्वरुप समझ लेना चाहिए | १. शास्त्रानुसार सभी धर्म क्रियायें करने की इच्छा होने पर भी प्रमाद से जो [ज्ञानीपुरुष भी] नहीं करता है, करता है तो दोषयुक्त क्रियाये करता है, इसको 'इच्छायोगी' कहते हैं। २. श्रद्धावान् अप्रमत्त ज्ञानीपुरुष सभी क्रियायें शास्त्रानुसार करता है, इस को 'शास्त्रयोगी' कहते हैं। ३. आठवें गुणस्थानक पर, जिन भावों का वर्णन शास्त्र भी नहीं कर सकता For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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