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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र १७ १३८ शुद्ध क्रिया करने से उसका फल मिलेगा, उसी के आधार पर आगे शुद्ध क्रिया होगी और उसका फल मिलेगा.... निश्चित फल मिलेगा, यों करतेकरते अंतिम मोक्षफल मिलेगा ही । ‘शिवसाधन संधि' का अर्थ है, मोक्ष प्राप्त करने के उपायों के संबंध । नयदृष्टि से सोचने पर ही ये संबंध ज्ञात होंगे । क्रियावंचक के बाद 'फलावंचक' बताया गया है । यदि मनुष्य विशुद्ध भाव से क्रिया करता है, तो अनन्तर या परंपर फल [ मोक्ष] मिलता ही है, यह तात्पर्य है। कुछ वर्षों से दिखायी देता है कि अपने जैनसंघ में स्याद्वाद और नयवाद का अध्ययन नहींवत् हो रहा है । उपदेशकों के पास भी स्याद्वाद और नयवाद का ज्ञान नहीं हो अथवा स्पष्ट ज्ञान नहीं हो, तो संघ -समाज को बहुत बड़ा नुकसान होता है और हो रहा है । उपदेशकों के पास तो स्याद्वाद और नयवाद का विशद बोध होना ही चाहिए । शान्तिनाथ भगवंत की स्तवना के माध्यम से श्री आनन्दघनजी ने योगावंचक, क्रियावंचक और फलावंचक - इन तीन योगों का स्वरूप समझाया है। यह समझाने के बाद वे पुनः आत्मतत्त्व की प्रतीति ' विधि - प्रतिषेध' के माध्यम से करने को कहते हैं विधि - प्रतिषेध करी आतमा पदारथ अविरोध रे.... ग्रहण - विधि महाजने परिग्रो, इस्यो आगमे बोध रे.... चेतन, छद्मस्थ जीवों के लिए आत्मतत्त्व प्रत्यक्ष नहीं है । किसी भी इन्द्रिय के माध्यम से आत्मतत्त्व प्रत्यक्ष नहीं जाना जा सकता है । अर्थात् आत्मतत्त्व परोक्ष तत्त्व है। परोक्ष तत्त्वों का निर्णय 'अनुमान' प्रमाण से किया जाता है। जहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण से तत्त्वनिर्णय होता हो, वहाँ अनुमान प्रमाण की जरूरत नहीं रहती है। आत्मा, प्रत्यक्ष प्रमाण से दूसरों के सामने सिद्ध नहीं की जा सकती है, इसलिए अनुमान - प्रमाण से सिद्ध करनी चाहिए । अनुमानप्रमाण यानी तर्क। तर्क सही है या गलत है, उसका निर्णय 'अन्वय-व्यतिरेक' से किया जाता है। चेतन, एक उदाहरण देकर तुझे यह अन्वय- व्यतिरेक [विधि-प्रतिषेध] समझाता For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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