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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र १६ १२९ ___'हे घननामी आनन्दघन! हे परमात्मन्! सेवक की [कवि की] यह विनती [अरदास] सुनिए। मेरा सुन्दर मन-भंवरा हाथ जोड़कर प्रार्थना करता है कि आपके चरणकमल के पास मुझे रहने का स्थान दें।' कवि ने अपना नाम परमात्मा को दे दिया! आनन्दघन प्रभो, 'मैं कहाँ हूँ आनन्दघन? आनन्द के घन.... नित्य आनन्दी तो आप ही हो। और, परमात्मा से प्रीति बाँधने की अपनी अयोग्यता स्वीकार कर, उन्होंने कहा-'आपके हृदय में बसने की तो मेरी पात्रता है नहीं, आपके चरणों के पास बैठने की थोड़ी सी जगह दे दोगे, तो भी महती कृपा होगी सेवक पर....।' ___कवि ने अपने मन को मात्र मधुकर नहीं कहा, 'वर' मधुकर कहा! परमात्मा के चरणकमल के पास सामान्य-असुन्दर मधुकर निवास नहीं कर सकता है। मधुकर सुन्दर चाहिए। आनन्दघनजी कहते हैं 'मेरा मन-मधुकर सुन्दर है!' यह सुन्दरता थी प्रेम की और भक्ति की। श्रद्धा की और शरणागति की। प्रेम और भक्ति से भरा हुआ मन, श्रद्धा और शरणागति के भावों से भरा हुआ मन.... सुन्दर मन है और ऐसा मन ही परमात्मा के चरण-कमल के पास रह सकता है। तू और मैं, और अपना मन ऐसे सुंदर भ्रमर बन कर परमात्मा के चरणों में स्थान प्राप्त करें, वैसी मनोकामना। - प्रियदर्शन For Private And Personal Use Only
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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