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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पत्र १४ www.kobatirth.org ││││││││││| | | | | | | | ││││││││││| O हे भगवंत, आप जैसे महान् परमपुरुष मेरे सर पर मालिक हैं, अब मैं पामर मनुष्यों की परवाह क्यों करूँ ? ● आनन्दघनजी को जिनमूर्ति अमृतपूर्ण लगती है, स्नान करती दिखती है। │││││││ पत्र : १४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ● आनन्दघनजी अपने जीवन में कभी पामर जीवों से दबे नहीं। उन्होंने परमात्मा के लोचनों में से हिम्मत का, सत्त्व का तत्त्व पाया था । o जब मनुष्य किसी भी विषय की मस्ती में झूमता है, तब वह दुनिया को व दुनिया के पदार्थों को नगण्य समझता है। o जिनभक्ति में लीन बना हुआ मन, दिव्य-दैवी तत्त्वों के प्रति भी लापरवाह बन जाता है। १०५ अमृत दु:ख-दोहग दूरे टल्यां रे, सुख-संपद शुं भेट, धींग धणी माथे कियो रे, कुण श्री विमलनाथ स्तवना प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला। श्री वासुपूज्यस्वामी की स्तवना को समझने में तुझें पूरी सफलता नहीं मिली, ठीक है। यह विषय ही ऐसा है। जैन दर्शन की अनेकान्त-दृष्टि से श्री आनन्दघनजी ने कुछ खूबियाँ बतायी हैं, कुछ विशेषतायें बतायी हैं। पुनः-पुनः मनन करने से ही ये बातें समझ पायेगा। For Private And Personal Use Only के महासागर में तू लिखता है कि मैं विस्तार से विवेचन लिखूँ । परंतु कितना विस्तार करूँ ? ज्यादा विस्तार करूँगा तो पूरा प्रवचन हो जायेगा । एक स्तवना पर एक प्रवचन भी पर्याप्त नहीं होगा ! तू जानता है न कि मांडवी [कच्छ] में अजितनाथ भगवंत की स्तवना पर ११ या १२ प्रवचन दिये थे, तब जाकर उस स्तवना का विवेचन पूर्ण हुआ था। आज श्री विमलनाथ भगवंत की स्तवना के विषय में लिखता हूँ। गंजे नर-खेट ?
SR No.009635
Book TitleMagar Sacha Kaun Batave
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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