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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवबोधि की पराजय ७१ ऐसी तरह-तरह की बातें पाटन में फैलने लगी। बात पहुँची राजा कुमारपाल के पास | राजा भी संन्यासी के चमत्कार देखने के लिए लालायित हुआ। देवबोधि को राजा का बुलावा आया । देवबोधि को यही तो चाहिए था! अगले दिन सबेरे देवबोधि राजसभा में जाने के लिए निकला। कदलीदल के पत्तों का उसने आसन बनाया। कमल के मृणालकंद के डंडे बाँधे । और आठ-दस साल के बच्चों ने देवबोधि की उस पालकी को उठाया। इतनी नाजुक नन्हीं सी खिलौने की पालकी में मोटा-तगड़ा देवबोधि बैठा हुआ था। पाटन के लोगों को तो बिना पैसे का तमाशा देखने को मिला। सैंकड़ों आदमी देवबोधि का जयजयकार करते हुए उसके पीछे चलने लगे। जुलूस राजसभा के पास पहुँचा। कुमारपाल और अन्य मंत्रीगण देवबोधि का स्वागत करने के लिए खड़े थे। वे सब विस्मित हो उठे । कुमारपाल सोचता है : 'इस संन्यासी में कोई अद्भुत कला है...!' देवबोधि पालकी में से उतरकर राजा के द्वारा रखे गये सुवर्णासन पर बैठा। राजा ने प्रणाम किया। देवबोधि ने आशीर्वाद दिये। फिर तीन घंटे तक देवबोधि ने राजा और प्रजा को विविध चमत्कार दिखा कर सभी का मनोरंजन किया। राजसभा का विसर्जन हुआ। देवबोधि ने राजा से पूछा : 'महाराजा, आप मध्याह्न में देव पूजा करते हैं ना?' 'राजा ने कहा : 'हाँ, मैं रोजाना दोपहर में ही देवपूजा करता हूँ।' देवबोधि ने कहा : 'मुझे तुम्हारी देवपूजा देखनी है!' राजा ने कहा : 'मैं स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनकर आता हूँ... फिर आपको मैं मेरे साथ देव मंदिर में ले चलूंगा।' राजा ने स्नान किया। पूजा के लिए शुद्ध वस्त्र पहने। देवबोधि को साथ लेकर वे मंदिर में गये। मंदिर में राजा ने श्री जिनेश्वर भगवान की एकाग्रचित्त For Private And Personal Use Only
SR No.009634
Book TitleKalikal Sarvagya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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