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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७ सोमनाथ महादेव प्रगट हुए गुरुदेव ने शिष्य परिवार के साथ सौराष्ट्र की ओर विहार कर दिया। कुछ दिन बाद कुमारपाल ने भी देवपत्तन की ओर प्रयाण किया। उसे अति शीघ्र देवपत्तन पहुँचकर सोमनाथ महादेव के दर्शन करने थे। राजा को पवनवेगी रथ में जाना था। गुरुदेव पैदल चलकर जानेवाले थे। राजा पहले पहुँच गया। जैसे मयूर मेघ की बाट निहारता है... वैसे राजा गुरुदेव की राह देखने लगा। गुरुदेव शत्रुजय-गिरनार की यात्रा करके, देवपत्तन पहुँचे। कुमारपाल के दिल, में चन्द्र के दर्शन से सागर की लहरें उछले त्यों बल्लियों उछलने लगा। राजा ने कहा : 'गुरुदेव, जैसे दुल्हा शादी का मुहूर्त बराबर ध्यान में रखता है, वैसे ही आपने यहाँ पर पहुँचने का समय सम्हाल लिया। राजा गुरुदेव के साथ धूमधड़ाके से सोमनाथ के मंदिर पर पहुँचा । अपने द्वारा निर्मित देवविमान से मंदिर की अद्भुत शोभा देखकर राजा का मन हर्ष से छलक उठा। उसका शरीर रोमांचित हो उठा। आँखों में आँसु उभर आये। सभी ने मंदिर में प्रवेश किया। राजा के मन में एक बात घुम रही थी। 'जिनदेव के अनुयायी जिनेश्वर के अलावा किसी को नमस्कार नहीं करते!' इसलिए सहमते हुए उसने गुरुदेव से कहा : 'गुरुदेव, यदि आपको उचित लगे तो आपको भी महादेव के दर्शन करने चाहिए।' 'अरे, राजन्! यह क्या कहा तुमने? दर्शन करने के लिए तो इतना चलकर यहाँ पर आये हैं! अवश्य करेंगे दर्शन!' गुरुदेव ने दर्शन करते हुए दोनों हाथ जोड़कर सिर झुकाया और स्तुति की 'जिनके राग-द्वेष नष्ट हो चुके हैं... वैसे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, या महादेव हो - चाहे किसी भी नाम में हो - मैं उन्हें वंदना करता हूँ!' For Private And Personal Use Only
SR No.009634
Book TitleKalikal Sarvagya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size3 MB
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