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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिंदगी इम्तिहान लेती है ७२ जीना पसंद ही नहीं करते! ऐसे कई दूसरे स्त्री-पुरुष भी दिखाई देंगे। जब दिमाग पर असह्य भार आ जाता है, तब ऐसे लोग 'पागल' बन जाते हैं या 'ब्रेन हेमरेज' के शिकार बन जाते हैं। उस महात्मा की बात तो प्रासंगिक तुझे लिख दी, तेरे जाने के बाद तुरन्त वह घटना घटी थी इसलिए लिख दी। तुझे अपने हृदय को, मन को, मस्तिष्क को निर्बोझ रखना है, इसलिए मैंने जो-जो उपाय बताए हैं, उन उपायों को भूलना मत। जीवन का रस सूखना नहीं चाहिए। प्रतिकूलताओं से भरा हुआ जीवन भी नीरस नहीं बने, तो मानना कि ज्ञानदृष्टि प्राप्त हुई है। साधु जीवन स्वीकार करने में जो अनेक प्रकार की योग्यताएँ अपेक्षित होती हैं, उन योग्यताओं में यह भी एक महत्वपूर्ण योग्यता अपेक्षित है! प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जीवन नीरस नहीं लगे। खाली... खाली नहीं लगे। परन्तु वह सरसता भी वासनाजन्य नहीं होनी चाहिए, कषायजन्य नहीं होनी चाहिए। अपने श्रमणजीवन के शैशवकाल में मैंने एक महात्मा ऐसे देखे थे... उनको दूसरों की निन्दा करने में भरपूर रस मिलता था। जब देखो तब दोषदर्शन और दोषकथन! 'परवृत्तान्तान्धमूकबधिरः' नहीं थे वे, वे तो स्ववृत्तान्तान्धमूकबधिर थे। ज्ञानी पुरुषों ने दूसरों के लिए अन्ध, मूक और बधिर बने रहने को कहा है, वे अपने ही विषय में अन्ध, मूक और बधिर बने रहते थे! परन्तु जीवन उनका सरस था! वह रस था निन्दा का! दोषदर्शन का! मैं ऐसा सरस जीवन बनाने को नहीं कह रहा हूँ | गुणदर्शन का रस चाहिए। आत्मगुणों का रस चाहिए | जो रस अशुभ कर्मबन्ध नहीं कराए वैसा रस चाहिए | साधक यदि जागृत नहीं होता है तो विकथाओं का रस उसे खूब पसन्द आ जाता है। विकथाओं को तो तू जानता है न? स्त्री-कथा, भोजनकथा, देशकथा और राजकथा । आगे चलकर भक्तकथा, उपाश्रयकथा... वगैरह अनेक प्रकार की बातें चलती रहती हैं। बातें करने का भी एक मजेदार रस है | परन्तु यह रस अशुभ कर्मों का ऐसा प्रगाढ़ बंध करवाता है कि आत्मा का भविष्य दुःखमय बन जाये | यह रस ज्ञानोपासना का रस पैदा नहीं होने देता है | ध्यान में बाधक बन जाता है। जिस किसी मनुष्य को ज्ञान और ध्यान में लीन होना है, उसमें से रसानुभूति करना है उसको इन फालतू बातों में, अपना समय नहीं बिगाड़ना चाहिए, विकथाओं से दूर रहना चाहिए। चित्त में अनेक विकल्प पैदा करने वाली बातों से अलिप्त रहना चाहिए । तू संसारी है, तेरे लिए यह बात थोड़ी सी मुश्किल रहेगी। संसार में जहाँ भी जाओ.. 'विकथा' सामान्य होती है। 'विकथा' कोई बुरी बात है - यह कोई नहीं For Private And Personal Use Only
SR No.009633
Book TitleJindgi Imtihan Leti Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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