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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिंदगी इम्तिहान लेती है १५७ ‘अनन्त जीवों में अभव्यता क्यों ? अनन्त जीव मुक्ति से... मोक्ष से वंचित क्यों रहेंगे?' इस प्रश्न का कोई भी समाधान नहीं है! अनन्त जीव संसार की चार गतियों में परिभ्रमण करते रहेंगे! वे कभी भी अपने कर्मों का नाश नहीं कर पायेंगे... कभी पूर्ण आत्मस्वरूप प्राप्त नहीं कर पायेंगे! किस अपराध की यह सजा होती है? कोई अपराध नहीं ! निरपराधी को यह कितनी बड़ी सजा है ? विश्व का एक सर्वमान्य सिद्धान्त है, कार्य-कारणभाव का [Cause & effect] यानी कि कोई भी कार्य बिना कारण नहीं बनता। यह सिद्धान्त ‘अभव्यत्व' के सामने नतमस्तक हो जाता है ! 'अभव्यत्व' का कोई कारण ही नहीं! अभव्यत्व कोई अपराध की सजा नहीं है, कोई गलती का परिणाम नहीं है। यदि कोई अभव्य जीवात्मा, जिसको मालूम हो गया हो कि मैं अभव्य हूँ, वह पूछ ले तीर्थंकर परमात्मा को कि : भगवन्, मैं अभव्य क्यों? मैं भी एक चैतन्यमय आत्मा हूँ... मैं भव्य क्यों नहीं ? इसका प्रत्युत्तर उसको क्या मिले ? यह भी संसार की एक वास्तविकता है कि बिना अपराध ... सजा हो सकती है! स्वीकार कर लेना चाहिए इस वास्तविकता को ! इस बात को स्वीकार कर लेने से मन की एक गंभीर उलझन सुलझ जाती है। हालांकि अपने जीवन में सुख-दुःख की जो घटना घटती है, वह सकारण ही घटती है, परंतु कभी हम कारण समझ नहीं पाते हैं, इसलिए हम मान लेते हैं कि 'यह निष्कारण दुःख मैं बेगुनाह था और मुझे सजा हुई... ।' पाया... प्रिय मुमुक्षु ! तू स्वस्थता से - गंभीरता से सोचना कि उन अभव्य जीवों की कैसी करुणास्पद स्थिति होती है । वे जीव कभी भी कर्मों से मुक्त नहीं बनेंगे..... कभी भी वीतराग नहीं बन पायेंगे... कभी भी सर्वज्ञ नहीं बन पायेंगे! आत्मा का स्वयं पूर्णानन्द नहीं पा सकेंगे! चूंकि वे अभव्य हैं! तू बाह्य आचरण से या विचारों से निर्णय नहीं कर सकेगा कि यह जीव भव्य है या अभव्य है! यह निर्णय करना अपनी बुद्धि-शक्ति से परे है। दूसरे मनुष्यों के विषय में किसी भी तरह का निर्णय, उनके बाह्य आचरण से करने जायेगा तो सही निर्णय करना संभव नहीं है । बाह्य आचरण साधु जैसा हो और हृदय डाकू का हो सकता है । बाह्य आचरण डाकू जैसा हो और हृदय साधु का हो सकता है। For Private And Personal Use Only
SR No.009633
Book TitleJindgi Imtihan Leti Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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